रसाभास | Rasaabhaas

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Rasaabhaas by

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
विषय-प्रवेश श्र (क) रसाभास में अनौचित्य स्थायी भाव में होता है । इनसे पुर्वे के आचार्यों ने अनौचित्य विभाव में माना था । पर उनका कथन है कि अनौचित्य केवल विभाव में मानने से अनेक नायकों की एक नायिका में रति का ग्रहण नहीं होगा । (ख) शिंग- अूपाछ आदि के विरुद्ध उनके अनुसार द्रौपदी और पाण्डवों की रति रसाभास ही है, भले' ही वह लोकानुमोदित क्यों न हो । (ग) रसाभास में रस की स्थिति इन्हें स्वीकार है । (२२-२४) जगन्नाथ के उपरान्त नरेन्द्रप्रभसूरि ने सीता में रावण की रति को परवनिता में निर्दिष्ट रति के कारण रसाभास कहा है, जबकि अन्य आचायों ने इसे अनुभयनिष्ठ रति के कारण रसाभास स्वीकार किया है । इसके अतिरिक्त वे अधमपात्र, _ तियंक-गत एवं निरिन्द्रिय-गत-रति में भी रसाभास स्वीकार करते हैं ।* अभिनव कालिदास ने अनुभयनिष्ठ, तियंक्गत, म्लेच्छगत, (अधम पात्र-निष्ठ) एवं बहुनायक- निष्ठ रति को रसाभास स्वीकार किया है ।' अल्लराज ने अनुभयनिष्ठ-रति तथा अनेक- निष्ठ-रति में रसाभास माना है । साहित्यसार के रचयिता श्रो अच्युताचायं रसाभास की उत्पत्ति अंतमतावलम्बन (लोकाचार हीनता) तथा अयोग्य विषयता (अनुचित विभाव) से मानते हैं ।* कुमार स्वामी और राजचूड़ामणि तियंगू योनि-गत रति को रस के अन्तगंत मानते हैं । हरिपाल ने इसे संभोग रस माना है ।* संक्त आचार्यों द्वारा प्रस्तुत रसाभास विषयक सामग्रो का पययंवेक्षण करने के उपरान्त अन्त में रसाभास के सम्बन्ध में निम्नोक्त तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं-- (१) सभी आचार्यों ने रसाभास का आधार अनौचित्य स्वीकार किया है । (२) उद्भट, जगन्नाथ एवं काव्यप्रकाश के टीकाकार वामन झलकीकर के अनुसार अनौचित्य से अभिप्राय शास्त्र एवं लोक का अतिक्रमण है । अन्य आचार्यों ने भी परोक्ष रूप से यही स्वीकार किया है । _ (है) भोजराज, काव्यप्रकाश के टीकाकार गोविन्द ठक्कुर, हेमचन्द्र, विश्वनाथ शिगभूपाल, रूपगोस्वामी, नरेन्द्रप्रभसूरि एवं नरसिंह तियंकगतभाव को रसाभास स्वीकार करते हैं, किस्तु काव्यप्रकाश के टीकाकार सुधासागरकार, विद्याधर, हरिपाल, कुमार स्वामी तथा राजचूड़ामणि तियंक्गतभाव को रसाभास स्वीकार न कर रस ही मानते हैं । (४) भोजराज, हेमचन्द्र, शिगभूपाल, रूपगोस्वामी एवं. नरेन्द्रप्रभसुरि निरिन्द्रियिगत भाव में रसाभास मानते हैं । (५) शारदातनय ने विरोधी रसों के संयोजन से तथा शारदातनय, शिगभूपाल १. अलंकार महोदधि, प० ६६-९७ । २. नज्जराज यशोभषण, प० ३८) ३. रसरत्न अ्रदोपिका, प० ३९३ ४. साहित्यसार, प० १३३३ ४५. देखिए, रससिद्धान्तः स्वरूप विश्लेषण, प० २४८३ ६. नम्बर मॉफ रसाज, पू० १४५३




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now