मोरी धरती मैया | Morii Dharatii Maiyaa

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Morii Dharatii Maiyaa by जैन श्रीचंद - Jain Shrichand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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- 2. ,.! गनपत मनाय गोरी, शंकर प्रधानिए । वैदिक प्रमान पृथ्वी कौ, छान छानिए ॥। दास्य-इयामला पृथ्वी का सुन्दर स्वरूप हमें ग्रामों में देखने को मिलता है । हमारी भारतमाता धरित्री है, जो ग्रामवासिनी है, जिसके श्राँगन में सर्देव रत्नदीपों का प्रकाश श्रठखेलियाँ करता है ; गंगा-यमुना जिसके पैरों को पखारती है श्रौर इयाम जलघर जिसके रेशमी केशों को धोते है श्रौर पवन उन्हें सुखाता रहता है ; कमल जिस धरती मंया के पर है श्रौीर सागर जिसकी मेखला ( करघनी ) है उस धरती माता का सुपुत्र किसान ही है। उसकी सेवा ही सच्ची सेवा है । उसकी श्रचंना में भक्ति का पूर्ण प्रवाह है । श्रषाढ़ के महीने में जब श्राकाद मेघों से घिर जाता है श्रौर जड़ल हरा- भरा दिलाई देने लगता है, तब किसान का मन उमंगों से भर जाता है । उपके कंठ से श्रनायास ही गीत निकलने लगते है श्रौर वह गा उठता है :--- धरती माता तने काजर दए, सेंदरन भर लई माँग । पहर हरि श्रला ठाँडी भदइ, तेने मोह लयो जगत संसार ॥। पृथ्वी के दो हाथों की विशेषता है । एक में प्रलय गु जता है श्रौर दूसरे में सर्डि उमंगें भरती है । झाँधी, प्रलय की भयंकर मूर्ति है श्रौर वर्षा सृष्टि का प्रतीक है । इस गहन भाव को एक श्रदिक्षित किपान हल चलाता हुम्रा श्रपनी साधारण भाषा में कितने भोलेपन से प्रकट कर रहा है :-- धरतो मात तो में दो भए, इक ऑआाँधी इक मेय* । मेय के बरसे साखा 'भई, जा में लिपट लगे संतार ॥। जगजननी भगवती सीता ऐ्रथिवी की ह। प्रतिरूप है । गोस्वामी तुलसीदांसजी १ मेघ।




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