प्रमुख एतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं | Pramukh Etihasik Jain Purush Aur Mahilayen

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Pramukh Etihasik Jain Purush Aur Mahilayen by डॉ.ज्योतिप्रसाद जैन -dr.jyotiprasad jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तेगो तरकश के घनी थे रज़मगह में फर्द थे; इस शुजाबत पर यह दुर्य है, सरापा दर्द थे । -वर्क देहलवी पुर्वंपीठिका जैनो के परम्परागत विश्वास के अनुसार वर्तमान कल्पकाल के अवस्पिणी विभाग के प्रथम तीन युगो मे भोगभूमि की स्थिति थी । मनुष्य जीवन की वह सर्वधा प्रकृत्याश्रित आदिम अवस्था थी । न कोई सस्कृति थी न सभ्यता, न ही कोई व्यवस्था थी और न नियम । जोवन अत्यन्त सरल, एकाकी, स्वतन्त्र, स्वच्छन्द और प्राकृतिक था । जो थोड़ी-त्रहुत आवइ्यकताएँ थी उनकी पूति कल्पवृक्षो से स्वत सहज हो जाया करती थी । मनुष्य शान्त एवं निर्दोष था । कोई सघर्ष या इन्द्र नही था । आधुनिक भूतत्त्व एव नृतत्व प्रभूति विज्ञान सम्मत, आदिम युगीन प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय युगो ( प्राइमरी, सेकेण्डरी एवं टशियरी इपेंवस ) की वस्तुस्थिति के साथ उक्त जैन मान्यता का भद्मुत्त सादृब्य है। वैज्ञानिकों के उक्त तीनो युग करोडो-छाखो वर्षो के अति दीर्घकालीन थे, तो जैन मान्यता का प्रयम युग प्राय. असंख्य वर्षो का था, दूसरा उससे बाधा लम्बा था, भौर तीसरा दुसरे से भी आधा था तथापि अनगिनत वर्षों का था । इस अनुमानातीत सुदीर्घ काछ में मानवता प्राय सुपृप्त पढी रही, अतएव उसका कोई इतिहास भी नही है । वह अनाम युग था । तीसरे काठ के अन्तिम भाग में चिरनिद्रित मनुष्य ने अंगडाई ढेना आरम्भ किया । भोगभूमि का भवसान होने लगा । कालचक़ के प्रभाव से होनेवाले परिवर्तनो को देखकर लोग दकित और भयभीत होने लगे । उनके मन में नाना प्रश्न उठने लगे । जिश्ञाप्ा करवट लेने ठगी । अतएव उन्होंने स्वयं को कुछो (जनो, समूहों या कबीलो) में गठित करना प्रारम्भ किया । सामाजिक जीवन की नीव पढ़ी । बल, बुद्धि आदि विशिष्ट जिन व्यक्तियों ने इस कार्य में उनका मार्गदर्दन, नेतृत्व और समाधान किया वे 'कुलकर' कहलाये । वे आवश्यकतानुसार अनुशासन भी रखते थे भर व्यवस्था भी देते थे, अतः उन्हें 'मनु' नाम भी दिया जाता है। उनकी सन्तति होने के कारण ही इस देश के निवासी मानव कहछाये । उक्त तीसरे युग के अन्त के लगमग ऐसे क्रमश” 'चौदह कुछकर या मनु हुए, जिनमे सर्वप्रथम का नाम प्रतिभरुति था और अन्तिम का नामिराय । इन कुछकरो ने अपने-अपने समय की परिस्थियो में अपने कुछो या जनों का संरक्षण, समाधान और मार्गदर्शन किया । सामाजिक जीवन प्रारम्भ हो रहा था । कर्मयुग सम्मुख था । यही से सनाम युग प्रारम्भ हुआ । अन्तिम कुछकर नाभिराय के नाम पर ही इस मह्दादेश का सर्वप्राचीन ज्ञात , नाम 'अजनाम' प्रसिद्ध हुआ । वह अपनी चिरसंगिनी मरदेवी के साथ जिस स्थान में निवास करते थे वही कालास्तर में अयोध्या नगरी वसी । भारतवर्ष की यह आदयनगरी प्रावेशिक ष्द




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