भारतीय जैन तीर्थ दर्पण | Bhartiya Jain Tirth Darpan
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
309
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्दे
किसी मन्दिर में या मूति में कोई चमत्कार दिखाई दे, जैसे थी.
सहावीर जी, देवगढ़ श्रादि । अतिशय क्षेत्रों के प्रति श्राकर्पण भौतिंक *
या सांसारिक होता है, श्राध्यात्मिक नहीं होता ।
जे साहित्य में सुतियों के कुन्रिम श्र श्रकृत्रिम दो प्रकार
बतलाये गये हैं । इसी प्रकार चैत्यालय भी दो प्रकार के होते हैँ
कृचिम भर ग्रकृचिम । नन्दीइवर दीप, सुमेरु, कुलाचल, शाल्मली
वृक्ष, जग्दू वृक्ष, वक्षार गिरि, चत्य वृक्ष, रतिकर गिरि, रुचकगिरि,
कुण्डल गिरि, मानुपोत्तर पव॑त, इष्वाकार गिरि, शअ्रंजन गिरि,
दघिसुख पंत, व्यन्तरलोक, स्वर्गलोक, ज्योतिरलॉक श्र भवन-
वासियों के पाताल लोक में चैत्यालय पाये जाते हैं । इन श्रकृचिम
चैत्यालयों में श्रकृन्निम प्रतिमाएँ विराजमान हैं । कृतिम मन्दिर एवं
प्रतिमाएँ सर्वप्रथम भरत क्षेत्र के प्रथम चक्रवर्ती भरत ने अयोध्या
श्र कंलाश में मन्दिर बनवा कर उनमें स्वर्ण श्रौर रत्नों की मूर्तियां
विराजमान करायीं । इनके श्रतिरिक्त बाहुबली स्वामी की पोदनपुर
में पांच सौ पच्चीस धनुष की प्रतिमा भी निर्माण करायी ।
तीर्थ क्षेत्र पर तीर्थकरों के कल्याणक स्थानों श्र सामान्य
केवलियों के केवल ज्ञान श्रौर निर्वाण स्थानों पर प्राचीन काल में,
लगता है उनकी मूर्ति विराजमान नहीं होती थी । तीर्थकरों के
निर्वाण स्थान को सौ धर्मेन्द्र अ्रपने वज्यदण्ड से चिल्लित कर देता
था । उस स्थान पर भक्त लोग चरण चिन्ह बना देते थे । तीर्थों पर॑
प्रायः चरण-चिन्ह ही रहते थे और उनके लिए एकाध मन्दिर, स्तूप,
श्रायागपटू, घ्मच क, भ्रष्ट प्रतिहार्य युक्त मूतियों का निर्माण होता
था श्रौर वे जैन कला के श्रप्रतिम अंग माने जाते थे । पश्चात् जब
मन्दिरों का महत्व बढ़ने लगा तो तीथें पर भी श्रनेक मत्दिरों का
निर्माण होने लगा ।
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नी महादीर दि८्न्सेननयाननालय
सं सददावार जं। (राज, )
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