तुम्हारे 'पार्कर' की देन तुम्ही को सप्रेम | Thumhare Parkar Ki Den Thummhi Ko Sprem
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
37 MB
कुल पष्ठ :
574
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(१४ )
वह स्वस्थ होने लगा । उसका वजन भी बढा श्रौर वदद कुछ दूर घूमने-
फिरने भी लगा |
पहाड पर रहकर एकान्त में वह बहुत कुछ सोचता, ऊबता पर तार
भी प्रसन्ननब्दके की चेष्टा करता । दिन में दो-चार बार दवा, हलका-
फुलका भोजन, तीत्र ज्वर में चुपचाप पलक बन्द किये पडे रहना, ज्वर
कम होने पर उसी चमकती सडक पर कुछ घूम झ्राना, यही क्रम प्रारम्भ
में हफ्तों क्या महीनों चला । तदनन्तर धीरे-घीरे ठीक होने पर बह भी
लबादे-सा लदा, एक बेत थिकटिकाता कुछ दूर कभी ऊपर की ओर श्रौर
कभी ढाल की ओर टहलने लगा । इतने पर भी शरीर से वह बडा
दुबला-पतला था । शारीरिक और मानसिक वेदना उसमे कुछ भी हो,
स्वभाव से वह बडा हँसोड श्रौर मघुरभाषी था श्र ऊपर से सदैव प्रसन्न
रहता था ।
वातालाप में वद्द जयन्त से कभी उसके प्रश्न के उत्तर में कहता, जयन्त,
मैं तुम्हारे इस प्रश्न का कया उत्तर दूँ कि मै सदैव इतना प्रसन्न किस प्रकार
रहता हूँ १ इस कठिन रोग में भी मैं श्रौर रोगियों की भा ति गुमसुम नहीं
रहता । नीरस नहीं रहता । केवल इसलिये कि मे जीवन न्वाहता हूँ ।
ससार के बीच में झपने श्राप को परखना चाहता हूँ । मै अपनी झ्खों
सब कुछ, बहुत कुछ देखना चाहता हूँ । में श्रपने श्रस्त की अभिलाषा
कर बैठा था, अब से कुछ काल पृ परन्तु श्रब मै रत के छोर से दूर
रहना चाहता हूँ , बहुत दूर । भे सब के बीच रहकर भी देखना चाहता
हूँ कि अपनी मूक-साधना सम्पन्न कर सकता हूँ श्रथवा नहीं । मै देखना
चाहता हूँ कि मेरे इस नीर-गु जन में कब किस दिशा से प्रतिध्वसि आती
है | आती भी है या नहीं । देंखू' प्रतिथ्वनि न पाकर मै कदाचित् विच-
लित तो नदी होता ? और मैं रहना भी चाहता हूँ मूक, निश्चल, श्रात्म-
विद्वल, सबधा श्रात्म-विभोर । सुम्के ज्ञात है समय मेरा साथ नहीं देगा |
वह किसी का साथ नही देता । मेरा वातावरण मेरा साथ न देगा |
संभव है मेरी अपनी पुकार ही मेरा साथ न दें परन्तु मेरा यह झात्म-
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