साहित्य की मान्यताएं | Sahitya Ki Manyataye
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
30 MB
कुल पष्ठ :
177
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भावना, बुद्धि और कम ११.
विद्रोहात्मक तत्त्व कुछ इने-गिने स्थलों पर ही विवेकयुक्त सात्विकता की
भावना से प्रेरित होता है, अधिकांश में यह विद्रोहात्मक तत्व अपने को
विकृतियों में परिणत कर लेता है। उपयोगितावाला विवेकतत्व जिस
समय कला में दशिथिल पड़ा, उसी समय कला में श्रसामाजिक बनने की
प्रवृत्ति आरा जाती है । श्र इसी लिए मध्ययुग में जब सामाजिक नियम श्रौर
बस्धन बहुत कस गए थे तथा किसी भी प्रकार की विद्रोहात्मक स्वच्छन्दता
या स्वतन्त्रता वाजित मानी जाने लगी थी, कलाकारों को समाज
से च्युत-सा कर दिया गया था । संगीतज्ञ, नतंक, अभिनेता, चित्रकार,
मूर्तिकार--ये जितने कलाकार थे उनका एक पृथक निजी सामाजिक वर
बनाकर उच्च श्रौर सम्भ्रान्त समाज से उन्हें निकाल बाहर किया गया था ।
पर वह रूढ़िग्रस्त मध्ययुगीन समाज साहित्यकार का निरादर नहीं
कर सका, श्रौर साहित्यकारों का कोई अलग वर्ग अथवा समाज नहीं बन
सका । यद्यपि चारणों के रूप में कवियों के एक भाग को समाज से
निष्कासित करने के प्रयत्न में उस मध्ययुगीन समाज को सफलता श्रवद्य
प्राप्त हो गयी, पर उस सफलता का श्रेय समाज के नेताओं को उतना नहीं
है, जितनी स्वयम उन कवियों की अ्रपने को अर्थ और धन के लिए गिरा
लेने की कमजोरी रही है । स्वतन्त्र एवं चेता साहित्यकार तो समाज का
नेता रहा है बौद्धिक प्राणी होने के नाते । साहित्य ही एक ऐसी कला है
जिसमें मनोरंजन के साथ दाब्दों में निहित ज्ञान श्र विवेक का
सम्मिश्रण रहा हे श्रौर उस कला में सात्विकता एवं बौद्धिकता को प्रमुखता
मिली है ।
... अन्य कलाओ्ों की अपेक्षा साहित्य में स्वांत: सुखाय वाले तत्त्व की
प्रचुरता रही है भ्रौर साहित्यकारों में यह प्रवृत्ति रही है कि वहू अ्रपने
व्यक्तित्व में दुनिया के व्यक्तित्व को लय कर दें, न कि दुनिया की रुचि के
अ्रनुसार वह श्रपने व्यक्तित्व को रूप दें ।
भावना श्र बुद्धि के योग से मानव के हरेक कमं की सष्टि होती है
और इसलिए में साहित्य के सृजन को एक प्रकार का कम ही मानता हूँ ।
लेकिन कला श्रौर साहित्य स्वयम में कमं होते हुए दूसरों के कर्मों को
प्रभावित कर सकते हें और इसी लिए कला श्रौर विशेष रूप से साहित्य
की सफलता एवं साथंकता लोकहित तथा समाज-कल्याण पर श्राश्रित
है । वह कला जो जनहित श्र लोक-कल्याण में सहायक नहीं होगी वह
निरथक समभी जाती है । वेसे. दूसरों का मनोरंजन करना तथा सुख
पहुँचाना स्वयम में जनहित और लोक-कल्याण समभ्ना जा सकता हे, पर
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