हिंदी गद्य की रूप रेखा | Hindi Gadhya Ki Roop Rekha

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Hindi Gadhya Ki Roop Rekha by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भ्च्ल् .निसांण-काल नह पुस्तकों के द्वारा गद्य का कोई विकास नहीं हुआ । हाँ, इतना तो अवश्य छुआ कि इन गद्य-पुस्तकों ने आगे के लिए झच्छी- खासी भूमि तैयार कर दी और लेखकों के लिए हिंदो-गद्य का द्वार खोल दिया, यह हमें निःसंकोच रूप से स्वीकार श्वश्य करना पढ़ेगा । इस काल के अन्तिम भाग में जाकर खड़ी बोली की ओर लोगों का ध्यान चिशेष रूप से श्याकर्षित हुआ और उसमें अच्छी-झच्छी रचनाएँ होने लगीं । ऐसे लेखकों में मुन्शी सदायुखलाल नियाज् (सब १७४६-१८२४) और इ'शाश्मल्ला- खाँ के नास चिरस्मरणीय हैं । उनसे '्ागे चलकर अंग्रेजों के शासन-काल में लल्बलाल श्रौर सदलमिश्र हुए, न्होंने सरकार की श्रोर से हिन्दी के लिए काम किया । इन चारों लेखकों का दिंदी-गद्य में एक महत्त्वपूर्ण :स्थान है, क्योंकि इन्हीं से हिन्दी-गद्य का एक नूतन युग श्ारस्भ होता है । इसलिए मुन्शी सदासुखलाल 'नियाज' और इ'शाझल्लाखाँ की गद्य-सेवाओं का उल्लेख इस स्थान पर न कर इन शेष दो लेखकों के साथ ही कर दिया गया है, यद्यपि वे इसी काल के हैं । : ३: हिंदी-गद्य का निर्भाण-काल ( सच ८००-१८६३ ई० (या) फ्रोट विलियम कालेज के अन्दर और बाहर ! उत्तर-माध्यमिक काल के अन्तिम भाग से लेकर आधुनिक काल के आारम्भ तक खड़ी बोली की आर लेखकों का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित हुआ । लल्लूलाल 'और सदलमिश्र के पूर्वे- माध्यमिक काल के अन्तिम भाग के दो गद्य-लेखक 'साहित्य- सत्र में प्रवेश कर चुके थे । चात वारतव में यह है कि लल्लू-




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