जीवन यात्रा | Jivan - Yatra
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
238
श्रेणी :
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No Information available about गणेशप्रसाद जी वर्णी - Ganeshprasad Ji Varni
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जीबन-थात्रा
सहवासमें शहुँगा अन्यथा मेरा आप ये कोई सम्बन्ध नहीं” मेरी
माता और ख्री अत्यन्त दुखी होकर रोने लगी पर मैं निष्टुर
होकर यहाँ चला आया
यह बात जब भायजी ने सुनी तब उन्होंने बड़ा डांटा ओर
कह्दा--तुम बड़ी गलती पर हो. तुम्हें अपनी माँ और स्त्रीका
सद्दवास नहीं छोड़ना चाहिये. एक पत्र डालकर उन दोनों को
बुला लो, यहाँ आने से उनकी प्रवृत्ति जेनधर्मेसें हो जायगी,
उनका आदेश था मैंने उसे शिरोधाय किया और एक पत्र
उसी दिन अपनी मांको डाल दिया. पत्रमें लिखा था--
'हे माँ ! मे आपका बालक हूँ, बाल्यावस्थासे हो बिना किसीके
उपदेश तथा प्र रणाके मेरा जैनधर्मसें अनुराग है. बाल्यावस्थामें
ही मेरे ऐसे भाव होते थे कि हे भगवन् ! से किस कुलमें' उत्पन्न
हुआ हूँ ? जहाँ न तो विवेक है ओर न कोई धर्मकी ओर अ्रवृत्ति
ही है. ऐसी दुर्देशासें रहकर मेरा कल्याण कैसे होगा ” हे प्रभो !
किसी जैनीका बालक क्यों न हुआ ? जहाँ पर छना पानी,
रात्रि भोजनका त्याग, निरन्तर जिनेन्द्र देवकी पूजन, स्तवन,
स्वाध्याय, शास्त्र सभा, ब्रत नियमों के पालनेका उपदेश होना
आदि धर्मक काये होते हैं. मे यदि ऐसे कुलमें जन्मता तो मेरा
भी कल्याण होता.; परन्तु आपके भयसे से नहीं कहता था
पे सेरे पालन पोषणसें कोई त्रुटि नहूं। की यह सब आपका
मेरे उपर सहोपकार है. से हृदयसे वृद्धावस्थामें आपकी सेवा
करना चाहता हूँ, अतः आप अपनी वधूको लेकर यहाँ आ जावे;
यहां मद्रसामे अध्यापक हूँ मुके छुट्टी नहीं मिलती; अन्यथा
स्वयं झापको लेनेके लिए आता. किन्तु आपके चरणॉमें मेरी
एक प्राथना अब भी है. वह यह कि आपने अब तक जिस धर्म
मे अपनी ६० वर्पकी श्ायु पूर्ण की अब उसे बदल कर
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