विवेकांनद साहित्य [खंड १०] | Vivekananda Sahitya [Khand 10]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हट मेरा जीवन तया ध्येय मैं जिन विचारों का सन्देश देना चाहता हूँ, वे सब उनके विचारों को प्रति- घ्वनित करने की मेरी अपनी चेप्टा है। इसमें मेरा अपना निजी कोई भी मौलिक विचार नहीं, हाँ; जो कुछ असत्य अयवा बुरा है, वह बवद्य मेरा ही है। पर हर ऐसा दब्द, जिसे मैं तुम्हारे सामने कहता हूँ थौर जो सत्य एव शुभ है, केवल उन्हीकी चाणी को झकार देने का प्रयत्न मात्र है। प्रोफेसर मैकसमूलर द्वारा छिसिन उनके जीवन-चरित्न को तुम पढो।' वस उन्हीके चरणों में मुझे थे विचार प्राप्त हुए। मेरे साथ और भी अनेक नवयुवक थे। मैं केवल वालक ही था । मेरी उम्र रही होगी सोलह वर्ष की, कुछ गौर तो मुझसे भी छोटे थे और कुछ वड़े भी थे--लगभग एक दर्जन रहे होगे, हम सव। और हम सबने वैठकर यह निश्चय किया फि हमे इस मादर्दो का प्रमार करना है। गौर चल पडें हम लोग--न केवल उस आदणं का प्रसार करने के लिए, वल्कि उसे भर भी व्यावहारिक रूप देने के लिए। तात्पर्य यह कि हमे दिखलाना था हिन्दुओ को आध्यात्मिकता, वी दो की. जीव:दया,-ईसादियो कौ. ्याशीलता, ऐवं _. मुस्लिमों कें। वन्वुत्व,--और ये सव अपने-व्यावहारिक-जीवन,_ के माध्यम द्वारा । हमने निश्चय किया, 'हम एक सार्वेभीम घर्म का निर्माण करेंगे---अभी गौर यहाँ ही। हम रुकेंगे नहीं । हमारे गुरु एक वृद्धजन थे, जो एक सिक्का भी कभी हाथ से नही छूते थे। वस जो कुछ थोडा सा भोजन दिया जाता था, वे उसे ही ले लेते थे, और कुछ गज कपडा--अधिक कुछ नहीं। उन्हे गौर कुछ स्वीकार करने के लिए कोई प्रेरित्त ही न कर पाता था। इन तमाम अनोखे चिचारो से युक्त होने पर भी वे बडे अनुशासत- कठोर थे, क्योंकि इसीने उन्हें मुक्त किया था। भारत का सन्यासी आज राजा का मित्र है, उसके साथ भोजन करता है, तो कल वह भिखारी के साथ है और तस-तले सो जाता है। उसे प्रत्येक व्यक्ति से सम्पर्क स्थापित करना है, उसे सदैव चलते ही रहना है। कहते हैं--'छुढकते पत्थर पर काई कहाँ *' अपने जीवन के गत चौदह वर्षों मे कभी भी मैं एक स्थान पर एक साथ तीन माह से अधिक रुका नही, सदा अमण ही करता रहा। हम सबके सब यही करते हैं। इन मुट्ठी भर युवकों ने इन विचारों को और उनसे निकलनेवाले सभी व्यावहारिक निष्कर्षों को अपनाया । सावेभौमिक घर्म, दीनो से सहानुभूति और १ अग्रेसी भाषा मे लिखित “रासकृष्ण हिज़ लाइफ एण्ड सेइगुस' जो पहले १८९६ में लन्दन से प्रकाबित हुई और जिसका पुनर्मुद्ण १९५१ मे अद्ेत आश्रम ने किया ।




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