महाकवि सूरदास | Mahakavi Surdas

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Mahakavi Surdas by नन्ददुलारे वाजपेयी - Nand Dulare Bajpai

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about नन्ददुलारे वाजपेयी - Nand Dulare Bajpai

Add Infomation AboutNand Dulare Bajpai

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
७ ् भक्ति का विकास इइर811811 81181 (1 वैदिक युग वैदिक काल में प्रकृति के विभिन्‍न तत्त्वों की प्रतीक रूप में पुजा की जाती थी । ये प्रतीक इन्द्र, वरुण, रुद्र, मरुत श्रादि देव रूपों में, सर्व-दाक्तिमान्‌ सृष्टि फे श्रादि कारण, परब्रह्म परमात्मा के हो स्वरूप समभे जाते थे । इस समय तक ब्रह्म के स्वरूप का निर्णय हो चुका था । गम्भोर चिन्तन द्वारा उसका निरुपण भी हु था । जितने गम्भीर विचार हारा ब्रह्म-निरूपण वैदिक ऋषियों ने किया उतना श्रागे चलकर कहीं उपलब्ध नहीं होता । लोकमान्य तिलक ने कहा है कि “ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में जितनी स्वाधीन उत्तम चिंता है, उतनी श्राज तक मनुष्य जाति नहीं कर सकी ।” इसी ब्रह्म की उपासना प्रतीक देवों के रूप में करना ऋषि श्रपना कर्तव्य समकते थे । वैदिक मन्त्रों में विवशता का श्राभास कहीं नहीं मिलता । वेदिक ऋषि पुर्ण उल्लास. से श्रपने रक्षक, मित्र तथा सुहद देवताओं के प्रति प्रेम-भरे मन्त्रों का उच्चारण करते थे। “ऋग्वेद में मनुष्य श्रौर देवताश्रों का जैसा सम्बन्ध है वैसा झागे के हिन्द्र-साहित्य में नहीं है । यहाँ देवता मनुष्य-जीवन से दूर नही हैं । श्रायों का विश्वास है कि देवता उनकी सहायता करते हैं, उनके शत्रुओं का नाश करते हें । वे मनुष्य से प्रेम करते हें श्रौर प्रेम चाहते हैं । भारतीय भक्ति-सम्प्रदाय का श्रादि-ख्रोत ऋग्वेद है । यहाँ कुछ मन्तरों में श्रादमी श्र देवता के वीच में गाढ़े प्रेम शऔर मित्रता की कल्पना की गई है” १ १. “हिन्दुस्तान की पुरानी सभ्यता', डॉक्ट र वेणीप्रसाद, पृष्ठ ४२।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now