वीर शासन के प्रभावक आचार्य | Veer Shasan Ke Prabhavak Acharya

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Veer Shasan Ke Prabhavak Acharya by कस्तूरचंद कासलीवाल - Kasturchand Kasleeval

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about कस्तूरचंद कासलीवाल - Kasturchand Kasleeval

Add Infomation AboutKasturchand Kasleeval

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
भांत्र समझ लिया जाता है किस्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि ये उदाहरण निरन्तर भोगोपभोगों में आसक्त सामान्य लोगों के लिए एक सर्वध्या भिन्न आत्महितकारो मार्ग का दर्दान कराते हैं । राजसम्मान जैन आचायों की विभिन्न लोकहितकारी प्रवृत्तियो से प्रभावित होकर अनेक राजामी ने समय-समय पर उनके उपदेश सुने तथा दानो द्वारा उनके ज्ञानप्रसारादि कार्यों में सक्रिय सहयोग दिया । राजा श्रेणिक और अजातशत्रु द्वारा गौतम भौर सुधर्म के सम्मान की कथा एं पुराणप्रसिद्ध हैं । चन्द्रगुप्त ने भद्रबाहु से और सम्प्रति ने सुहस्ति से धर्मकार्यों की प्रेरणा प्राप्त की । शक राजाओं ने कालक के अनुरोध पर अत्याचारी गर्दमिल्ल का नाश किया । सातवाहन कुल के राजाओं ने कालक और पादलिस का सम्मान किया । विक्रमादित्य सिद्धसेन से और दुविनीत पूज्यपाद से प्रभावित थे । गंगवंदा- स्थापक माधववर्मा सिंहनन्दि के शिष्य थे । इनके वंशजों ने भी वीरदेव आदि अनेक आचार्यों को. दानादि से सम्मानित किया । चालुक्य वश के राजाओ ने जिननन्दि, प्रभाचन्द्र, रविकीति आदि के धर्मकार्यों मे सहयोग दिया । हर्ष राजा की सभा में मान- तुग सम्मानित हुए । राष्ट्कूट वंश के राजाओ की सभाओ मे अकलंकदेव, जिनसेन, उग्रादित्य आदि को. वाणी मुखरित हुई । कर्णाटिक में होयसल वश तथा गुंजरात में चौलुक्य वश का समय शिल्प और साहित्य की समृद्धि से परिपूर्ण रहा, इस काल के आचार्यों के उल्लेखो की सख्या सैकडो में पहुँचती है । वादविजय प्राचीन भारत के विभिन्न घारमिक सम्प्रदायो ने अपने-अपने मत के समर्थन और अन्य मतों के खण्डन के लिए तरकंशास्त्र का व्यापक उपयोग किया । ऐसे वादविवाद तब विश्षेष महत्वपूर्ण हुए जब विभिन्न राजाओ की सभाओ मे संस्कृत को प्रतिष्ठा मिली । जैन दर्शन अपने आपमे वाद को महत्व नहीं देता--उसका उद्देश्य तो विभिन्न वादों में यथाथ॑ तत्त्वज्ञान द्वारा सवाद स्थापित करना है। किन्तु अन्य सम्प्रदायों द्वारा वाद में विजय को सामाजिक लाभ का साधन बनाया गया तब समाज-गोरव की रक्षा के लिए आवश्यक होने पर जैन आचायों ने भी वादसभाओ में भाग लिया और इसमें उन्हें सफलता भी अच्छी मिली । समन्तभद्र, सिद्धसेन, मल्लवादी, अकलंक, हरिभद्र, विद्या- नन्द, वादिराज, प्रभावन्द्र, शान्तिसूरि, देवसूरि आदि की जीवनकथाओ से यह स्पष्ट होता है । शिल्पसमृद्धि वीतराग भाव की साधना जैन परम्परा का लक्ष्य रहा हैं। सुशिक्षित और अशिक्षित दोनो के लिए इस साधना का एक प्रभावी मार्ग हैं जिनबिम्बो का दर्शन । इसलिए समय-समय पर आचायों ने जिनमूरतियो और मन्दिरो के निर्माण का उपदेश माक्कथन भ्दु




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now