वीरोदय काव्य | Virodaya Kavya

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Virodaya Kavya by हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री - Heeralal Siddhantashastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १४ ) सब स्त्री के बन्घन से उत्पन्न होते हैं । ख्री के निमित्त खे इन्द्रियां प्रमत्त होती हैं, मनुष्य की आंखें सदा स्त्री के रूप देखने ' को उत्सुक बनी रददती हैं । उसे प्रसन्न रखने के छिए वह सदा उबटन, तेल- फुलेढादि से झपने झरीर को सजाता-संवारता रहता है झौर शरीर- पोषण के छिए बाजीकरण औषधियां का निरन्तर उपयोग करता है । कवि भ० मददाबीर के मुख से कहलाते हैं कि जो इन्द्रियों का दास है, वह समस्त जगत्‌ का दास हैं । अतः इन इन्द्रियों को जीत॑ करके ही मनुष्य जगज्जेता बन सकता है। इस/प्रकार अपना झअभिप्राय प्रकट कर उन्होंने पिता से अपने आजीवन अविवाहित रहने की ही बात नहीं कही. प्रत्युत भविष्य में अपने द्वारा किये जाने वाले कार्यो की श्रोर भी संकेत कर दियी । यह सारा वर्णन बड़ा ही हृद्यस्पर्शी है । त्रिवाहद का प्रस्ताव अस्वीकार कर देने के पश्चात्‌ भ० मददावीर के हृदय में जगउजनीं की तास्कालिक स्थिति को देखकर जो विचार उत्पन्न होते हैं, वे बड़े ही मार्मिक एवं हृदय-द्रावक हैं । भगवान्‌ संसार की स्वाथे-परता को देखकर विचारते हैं--'अहों ये संसारी छोग कितने स्वार्थी हैं ? वे सोचते हैं कि मैं दी सुख्मी रहूँ, भले ही दूसरा दुःख-कूप में गिरता है. तो गिरे। दसें उससे क्या प्रयोजन है ? लोगों की मांस खाने की दुष्प्रबृत्ति को देखकर सद्दावीर विचा- रते हैं -झाज लोग दूसरे के खून से झपनी प्यास बुझाना चाहते हैं और दूसरों का मांस खाकर अपनी भूख शान्त करना चाहते है । अहो यह कितनी दयनीय स्थिति है ।




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