कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा | Karttikeyanupreksha

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Karttikeyanupreksha by कैलाशचन्द्र शास्त्री - Kailashchandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रे “तु बाहे जिस धर्मकों मामता हो इसका मुझे पक्षपात नहीं, मात्र कहनेका तात्पयं यहीं कि जिस मार्गसे ससारमलका नाग हो उस भक्ति, उस धर्म और उस सदाचारका तु सेवन कर ।” (पुष्पमाला-१५) “दुनिया मतमेदके बन्धनसे तत्व नहीं पा सकी ।” ( पश्नाक-रे७ ) “जहाँ तहाँसे रागदेषरहित होना ही मेरा धर्म ह.. में किसी गच्छमें नही हूं, परन्तु आत्मामें है यह मत भूक्तियेंगा ।” ( पत्राक-३७ ) श्रीमदूजी ने प्रीतम, अखा , छोटम, कबीर, सुन्दरदास, सहजानन्द, मुक्तानन्द, नरसिंह मेहता आदि सम्तोकी वाणीकों जहाँ-तहाँ आदर दिया है और उन्हें मार्गानुसारी जीव ( तन्वप्राप्तिके योग्य आत्मा ) कहा है । फिर भी अनुभवपुर्वक उन्होने जैनशासनकी उत्ठृष्टताकों स्वीकार किया है-- “'बीमत बीत तंग भगवन्तोका निश्चितार्थ किया हुआ ऐसा मचिन्स्य चिन्तामणिस्वरूप, परम- हितकारी, परम अद्भुत, सर्व दुत्खका नि सशय भात्यन्तिक क्षय करनेवाला, परम अमृतस्वरूप ऐसा सर्वोत्कृष्ट शाश्वतधर्म जयवन्त वर्तों, त्रिकाल जयवन्त वर्तों । उस श्रीमत्‌ अनन्तचतुष्टयस्थित भगवानका और उस जयवन्त धर्मका माश्रप सेव कर्तव्य है ।” ( पत्राक-८ ४३ ) परम वीतराग दशा श्रीमदुजीकी परम विदेही दशा थी । वे लिखतें हैं-- “एक पुराणपुरुष और पुराणपुरुषकी प्रेमसम्पत्ति सिवाय हमें कुछ रुखिकर नहीं लगता, हमें किसी पदार्थमें रुचिमात्र रही नहीं है. हम देहधारी हैं या नही--यह याद करते हैं. तब मुश्केलीसे जान पाते हैं।” ( पत्राक-२५५ ) “देह होते हुए भी मनुष्य पूर्ण वीतराग हो सकता है ऐसा हमारा निश्चल अनुभव है । क्योकि हम भी अवदय उसी स्थितिकों पानेवाले है, ऐसा हमारा आत्मा अखण्डतासे कहता है और ऐसा ही है, जरूर ऐसा ही है ।” ( परत्राक-रे३४ ) “मान लें कि चरमदरी रीपन इस कालमें नहीं हैं, तथापि अशरीरी भावसे आत्मस्थिति है तो वह मावनयमसे चरमशरी रोपन नही, अपितु सिद्धत्व है, और यह अशरीरीभाव इस कालमें नहीं है. ऐसा यहाँ कहें तो इस कालमें हम खुद नहीं हैं, ऐसा कहने तुल्य है ।' ( पत्राक-४११ ) अहमदाबादमें आगाखानके बेगलेपर श्रीमद्जोनै श्री लल्छुजी तथा श्री देवकरणजी मुनिकों बुलाकर अन्तिम सूचना देते हुए कहा धा--' 'हमारेमें और बीतरागमें भ्रेद न मानियेगा ।'” एकान्तचर्या, परमनिवृत्तिरुप कामना मोहमयी ( बम्बई ) नगरीमें व्यापारिक काम करते हुए भी श्रीमद्जी ज्ञानाराघना तो करते ही रहते थे और पत्रों द्वारा मुमुक्षुओंकी शंकाओका समाघान करते रहते थे, फिर भी बीच-बीचमें पेढीसे विज्ञेष अवकाश लेकर ये एकान्त स्थान, जंगल या पर्वतोंमें पहुंच जाते थे । मुख्यरूपसे वे सभात, वडवा, काबिठा, उत्तरसहा, नडियाद, वसो, रालज और ईडरमें रहे थे । वे किसी भी स्यान पर बहुत गुप्तरूपसे जाते थे, फिर भी उनकी सुगन्धी छिप नहीं पातो थी । मनेक जिज्ञासु-न्रमर उनके सत्समागमका लाभ पानेके [लिए पीछे-पीछे कही भी पहुंच ही जाते थे । ऐसे प्रसगों पर हुए बोधका यर्ताकिंचितू संग्रह श्रीमद्‌ू राजचन्द्र प्रस्थमें 'उपदेशछाया” “'उपदेशनोध' और “'व्याख्यानसार' के नामसे प्रकाशित हुआ है । यद्यपि श्रीमदजी गृहवास-व्यापारादिमें रहते हुए भी विदेहोबत्‌ थे, फिर भी उनका अन्तर सर्व- सगपरित्याग कर निर्प्न्थदशाके लिए छटपटा रहा था । एक पत्रमें वे लिखते है--''भरतजीकों हिरमके संग- से जन्मकी वृद्धि हुई थी और इस कारणसे जडभरतके भवमें असम रहे थे । ऐसे कारणोसे मुझे भी असगता बहुत ही याद आती है, मोर कितनी ही बार तो ऐसा हो जाता है कि उस असगताके बिना परम दुश्ख होता है । यम अन्तकालमें प्राणीको दु खदायक नहीं लगता होगा, परम्तु हमें सग दु खदायक लगता है ।”' (पत्रांक रे १७ )




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