अलाव से रिएक्टर तक | Alav Se Reactor Tak

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Alav Se Reactor Tak by योगेन्द्र नागपाल - Yogendra Nagpal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पृथ्वी पर ऐसी बहुत सी शरृंखलाएं काम करती हैं : विजलीघरों में , जहाज़ो पर , १ और भी बहुत सी जगहों पर। ऊर्जा के प्राय: सभी रूपों को लोग यांज्रिक ऊर्जा में बदलते है। इस ऊर्जा की मनुष्य को सबसे अधिक आवद्यकता है। यही ऊर्जा रेलगाड़ियों को पटरियों पर चलाती है, विमानों को आकाश में उठाती है , क़मीज़े “ सीती ” है , मोटरगाड़िया ” बनाती ” है। हमारे हृदय की यात्रिक ऊर्जा रक्‍्तवाहिकाओं में रक्त का सचार करती है, और मांसपेशियों की ऊर्जा की बदौलत हम चल-फिर सकते हैं , पढ-लिख सकते है। अच्छा , यह तो ठीक है। हमने खराद पर कोई पुर बना लिया , या मशीन पर कमीज़ सी ली। पर वह ऊर्जा कहा गई , जिसने इस काम में हमारी मदद की थी * उसका क्या हुआ ? वया वह पुरा , या कमीज़ या कुछ और चीज़ वन गई? नहीं , ऐसा कुछ भी नही हुआ। ऊर्जा के साथ कुछ भी क्यों न किया जाये , वह ऊर्जा ही रहती है। वह न नप्ट होती है, न बनती है। वह तो बस एक रूप से दूसरे रुप में बदलती है। और जब ऊर्जा आदमी की मदद कर चुकी होती है - इस्पात गलाने का , माल ढोने का , या टेलीविजन पर कोई कार्यक्रम दिखाने का काम कर चुकी होती है, तो वह अनिवार्यत ऊपमा यानी ताप ऊर्जा बन जाती है। ज़रा देखो : इंजन हवा से बातें करता चला आ रहा है। उसके पीछे डिब्वों की लवी कतार है। सामने से आती हवा इंजन से टकराती है , हर पायदान मे फमती है। डिब्बों की छत्तो और दीवारों से रगडती है। ट्रेन को आगे बढ़ने से 'रोकती है। डिब्बों तले पहिये ठक-ठक करते हैं , पटरियों पर चलते हैं, और दे भी पटरियों से रगड़ खाते है। यह रगड़ ही , जिसे घर्पण भी कहते हैं , इजन की प्रायः सारी दाक्ति खा जाती है। रगड़ से तो हर चीज़ गरम होती है। इस बात की जाच बड़ी आसानी से की जा सकती है। अपनी हथेलियां रगड़ कर देखो - तुरन्त ही पता चल जायेगा। तो क्यो इजन अपने काम से पटरियों और हवा को गरम करता है? हा। फिर यह ऊप्मा वायुमण्डल मे चली जाती है , और वहा से आगे अंतरिक्ष में। यही बात कार पर भी लागू होती है। कार के लंदे सफर के वाद पहिये को हाथ लगाकर देखो , पता है कितने गरम होने हैं !




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