चौबीस तीर्थकर | Chaubis Tirthakar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
174
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२. भगवान अजितनाथ
पुर्वे भव--
तीर्थंकर नामकर्म सातिशय पुष्य प्रकृति है । यह प्रकृति उसी महा-
भाग के बंधती है, जिसने किसी पूर्व जन्म में दर्शन विशुद्धि आदि सोलह
कारण भावनाओं का निरन्तर चिन्तन किया हो, तदनुकुल अपना जीवन-
व्यवहार बनाया हो और जिसके मन में सदाकाल यह भावना जागृत रहेती
हो--'संसार में दुःख हो दुख है। प्रत्येक प्राणी यहां दुःखों से व्याबुल है ।
मैं इन प्राणियों का दुःख किस प्रकार टूर करू, जिससे ये सुखी हो सकें ।'
सम्पूर्ण प्राणियों के सुख की निरन्तर कामना करने वाले महामना मानव
को तीर्थकर प्रकृति का बंध होता है अर्थात् आगामी काल में वह तीर्थंकर
बनता है । द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ ने भी पहले एक जन्म में इसी प्रकार
की भावना की थी । उसकी कथा इस प्रकार है :---
वत्स देश में सुसीमा नाम की एक नगरी थी। वहां का नरेश
विमलवाहन बड़ा तेजस्वी और गुणवान था । उसमें उत्साह शक्ति, मंत्रशक्ति
और फलशक्ति थी । वह उत्साह सिद्धि, मत्रसिद्धि से युक्त था । वह पुत्र के
समान अपनी प्रजा का पालन करता था । उसके पास भोगों के सभी साधन
थे, किन्तु उसका मन कभी भोगों में आसक्त नहीं होता था। वह सदा
जीवन को बास्तविकता के बारे में विचार किया करता--जिस जीवन के
प्रति हमारी इतनी आसक्ति है,] इतना अहंकार है, वह सीमित है। क्षण-
प्रतिक्षण वह छीज रहा है और एक दिन वह समाप्त हो जायगा । इसलिये
भोगों में इसका व्यय न करके आत्म-कल्याण के लिये इसका उपयोग
करना चाहिए ।
यह विचार कर उसने एक क्षण भी व्यर्थ नष्ट करना उचित नहीं
समझा और अपने पुत्र को राज्य-शासन सौंपकर अनेक राजाओं के साथ
उसने दैगम्बरी दीक्षा धारण कर ली । उसने ग्यारह अंगों का शान प्राप्त
कर लिया, दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का निरस्तर
चिन्तवन किया । फलत: उसे तीर्थकर प्रकृति का बन्ध हो गया । आयु के
अन्त में पंच परमेष्ठियों में मन स्थिर कर समाधिमरण कर बह विजय
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