अभिधावृत्तिमातृका तथा शब्दव्यापारविचार का तुलनात्मक अध्ययन | Abhidhavrittimatrika Tatha Shabdavyaparavichar Ka Tulanatmak Adhyayan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20 MB
कुल पष्ठ :
213
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कल्हण की 'राजतरज्िणी' मे कश्मीर के राजा अवन्तिवर्मा के शासन-काल मे (८४४ ई०-८८३ ई०) कल्लट
नामक व्यक्ति के अवतीर्ण होने का उल्लेख है इसमे कल्लट का अवतार सिद्ध पुरुष के रूप मे माना गया हैं। प्रो०
पी० वी० काणे ने कल्लट को शैव सम्प्रदाय की स्पन्दशाखा से सम्बन्धित माना है।
कश्मीर में शैव-दर्शन का अत्यन्त महत्त्व है। शिवसुन्न ही इस दर्शन का आधार है। इन सुत्रों की रचना
साक्षात् शिव द्वारा मानी जाती है। शैव-शास्त्र मे भी “स्पन्दशाखा' को विशेष महत्त्व प्राप्त है। कल्लट ने शिवसुत्र पर
स्पन्द सुत्र लिखे थे। इसका प्रमाण है स्पन्द-कारिका के अन्त में इसके रचनाकार के रूप मे कल्लट का नाम उल्लिखित
होना -
समाप्त स्पन्दसर्वस्वं प्रवत्तं भट्टकल्लटात
स्वप्रकाशैकचित्तस्वपरिरम्भरसोत्सुकात्।
डॉ० के०सी० पाण्डेय ने अपने ग्रन्थ अभिनवगुप्त' मे भट्ट कल्लट की चार कृतियो का उल्लेख किया है -
स्पन्दसर्वस्व, तत्त्वार्थचिन्तामणि, स्पन्दसुत्र तथा मधुवाहिनी।'
कश्मीर के प्रसिद्ध यही भट्टकल्लट मुकुलभट्ट के पिता थे। इनके द्वारा अपने पिता का नामोल्लेख भी उनकी
प्रसिद्धि का ही सुचक है। कश्मीर की परम्परा मे इतने प्रसिद्ध व्यक्ति का पुत्र होना भी इनके लिए गौरव का ही विषय
था। सम्भवत: यही कारण है कि इन्होने अपने विषय में अधिक कुछ भी लिखने की आवश्यकता नहीं समझी होगी।
अपने परिचय हेतु अपने पिता का नामोल्लेख मात्र कर दिया है।
मुकुलभट्ट के शिष्य थे प्रतीहारेन्दुराज। इन्होने उद्धट के 'काव्यालज्लारसारसंग्रह' पर 'लघुवृत्ति' नामक टीका
लिखी है। इस टीका के प्रारम्भ मे ही प्रतीहारेन्दुराज ने स्वय को मुकुलभट्ट का शिष्य बताया है' तथा उसके अन्त में
मुकुलभट्ट की अत्यधिक प्रशसा की है। इससे ज्ञात होता है कि ड्विजश्रेष्ठ मुकुलभट्ट मीमांसा, व्याकरण, तर्क तथा
न शारदादेशमपास्य दुष्टतेषा यदन्यत्र मया प्ररोहः।।
अनुग्रहाय लोकाना भटटश्रीकल्लटादय:
अवन्तिवर्मण: काले सिद्धा भुवमवातरन्॥। (रा० त०, ६/६६) ।
* स० का० इति०, काणे, पृ० २७२ ।
* 'अभिनवगुप्त', डॉ० के० सी० पाण्डेय, पृ० १५७ ।
* विद्वदगयान्मुकुलादधिगम्य विविद्यते।
प्रतीहारेन्दुराजेन काव्यालज्लारसंग्रह:। (काव्या० ल० वृ०, पृ० २४८) |
* मीमांसासारमेघातृपदजलधिविधोस्तर्कमाणिक्यकोशातु
साहित्यश्रीमुरारेबुंधकुसुममधोः शौरिपादाब्जभूज्ञात।
श्रुत्वा सौजन्यसिन्धोर्द्धिजवरमुकुलात् कीर्त्तिवल्ल्यालवालातु
काव्यालज्लारसारे लघुवृत्तिमधात् कौड्डूण: श्रीनदुराजः॥ (काव्या० ल० वृ०, पृ० धरेरे) ।
श्र
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