ब्रह्मयज्ञ | Brahmyagya

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Brahmyagya  by श्री आत्माराम जी - Sri Aatmaram Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[झयज्ञ # । ख | िफेमहान,नाड्रदाठय में मनुष्य ही एक मात्र विचित्र है च। और चिन्तनी८, वस्तु है । मनुष्य के शरीर में सबे लि घ्रह्माण्ड का भौतिक चित्र और सर्व सृष्टि के मौतिक ' ब्रह्मयज्ञ शब्द दो भावों को श्रगट करता है, एक तो वेद संबंधी करें दूसरे इंश्वर संबंधी कम । इसका कारण यह कि ब्रह्म शब्द के चेद और इश्चर दो अथे हैं । मानव धर्म शात्र अध्याय तीन श्टोक ७० में ** अध्यापर्न ब्रह्मयज्ञः ” इन दाब्दों द्वारा न्रह्मयज्त के अर्थ वेद के पढ़ाने के छिएगएं हैं. । वेद का पढ़ाना वास्तव में वेद संदंधी कर्स हैं । पश्चमंहायज्ञविधिः में म्हपि स्वामी दयानन्दजी ने “ तन्नादी ब्रह्मयज्ञान्त- गत सन्व्या विधान शच्यते ” इन शब्दों में सन्ध्या को श्रह्मयज्ञ के अन्त- गेत दर्शाया है, और इस से आगे यह शब्द महाँषि ने लिखे हैं * तत्र रात्रि- न्दिवयो: संन्धिवेलायामुभयोस्सन्धियोः सर्वेम॑जुष्यैरवदय॑ परमेश्वरस्येवस्तुति श्राथनोंपासनाः काय्यों: ” जिसका अर्थ यह है कि ,रात और दिम के संयोग समय दोनों सख््याओं में सब मनुष्यों को परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना करनी तवाहिए । इस से पाया गया कि सन्ध्या के अंग स्तुति प्राथना ओर उपासना हैं 1 इसलिए हम' कह सकते हैं कि स्तुति प्राथना तथा उपासना नहायज के अज् हैं ।




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