समयसार | Samayasar

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Samayasar  by गणेश प्रसाद जी वर्णी - Ganesh Prasad Ji Varni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्द समयसार देवसेनके बाद ईसाकी बारहवी शताब्दीके विद्वान जयसेनाचार्यने भी प्चास्तिकायकी टीकाके आरम्भ- में निम्नलिखित अवतरण-पुष्पिकामें कुन्दकुन्दस्वामी के विदेहगमनकी चर्चा की है-- 'अथ श्रीकुमारनन्दिसिद्धान्तदेवश्िष्ये. प्रसिद्धकथान्यायेन पूवविदेह गत्वा वोतरागसवं्ञ- श्रीमद्रस्वामिती थकरपरमदेव दृष्टवा तन्मुखकमकविनिगंतदिग्यवाणीश्वणाव धारितपदार्थाच्छुद्धस्मतश्वादि- सारा यृद्दीत्वा पुनरप्यागते श्रीमर्कुन्दकुन्दाचाय देवे पश्मनन्द्याद्यपराभिघेयं रन्तस्तरवबहिस्तरव गी णमुख्य- प्रतिपत्यथ अथवा शिवकमारमहाराजादिसक्षेपरुचिशिष्यप्रतिबोधनाय विरचिते पश्चास्तिकायप्राब्स ता सत्र यथाक्रमेणाधिकारशुद्धिपूचक तात्पर्यव्याख्यान कथ्यते ।' 'जो कुमारनन्दि सिद्धान्तदेवके शिष्य थे, प्रसिद्ध कथाके अनुसार जिन्होंने पूर्व विदेहक्षेत्र जाकर वीत- राग सर्वज्ञ शरीमदरस्वामी तीर्थंकर परमदेवके दर्शनकर तथा उनके मुखकमलसे विनिर्गत दिव्यध्वनिके श्रवणसे अवधारित पदार्थोम शुद्ध आत्मसत्व आदि सारभूत भर्थको ग्रहणकर जो पुन वापिस आये थे तथा पद्मनन्दी भादि जिनके दूसरे नाम थे ऐसे श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवके द्वारा अन्तस्तत्त्वकी मुख्यरूपसे और बहिस्तत्वकी गीणरूपसे प्रतिपत्ति करानेके लिये अथवा दिवकुमार महाराज आदि सक्षेप रुचिवाले दिष्योको समझानेके लिये पश्ास्तिकाय प्राभृत शास्त्र रचा ।' षट्प्राभृतके सस्क़ृत टीकाकार श्रीश्रतसागरसुरिने अपनी टीकाके अन्तमे भी कुन्दकुन्दस्वामी के विदेह- गमनका उल्लेख किया है-- 'आपदूमन न्दिकुन्द कुन्दा चा ये व क्रप्री वा चार्ये काचाय गूद्धपिच्छा चाय नामपश्नकविराजितेन चतुरबुला- कारपागसनर्द्िना पूव॑विदेह पुण्डरी किथीनगरव न्दितश्रीसन्घरापरनामस्वय प्र म जिनेन तत्‌श्रुतज्ञानसम्बो घित- भरतवघषभव्यजीवेन श्रीजिनचन्द्सूरिमद्दारकपट्टामरणभूतेन ककिकालसवंज्ञ न विरचिते घट्प्राखतम्न्थे--' 'पद्मनन्दो, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रप्रीवाचार्य, “एलाचार्य और गुद्धपिच्छाचार्य इन पाँच नामोसे जो युक्त थे, चार अज्जल ऊपर माकाश्यगमनकी त्रद्धि जिन्हे प्राप्त थी, पूर्वविदेहक्षेत्रके पुण्डरीकिणी नगरमे जाकर श्रीमन्घर अपर नाम स्वयप्रभ जिनेस्द्रकी जिन्होंने वन्दना की थी, उनसे प्राप्त श्रुतज्ञानके द्वारा जिन्होंने भरत- क्षेत्रके भव्यजोवोंको सबोधित किया था, जो जिनचन्द्रसूरि भट्टारकके पट्के आभूषणस्वरूप थे तथा कलि- कालके सर्वज्ञ थे, ऐसे कुन्दकुन्दाचार्यद्वारा विरचित पट्प्राभूत ग्रत्थमे--' उपयुक्त उल्लेखोसे साक्षात्‌ सर्वज्ञदेवकी वाणी सुननेके कारण कुन्दकुन्दस्वामी की अपूर्व महत्ता प्रस्या- पित की गई है । किन्तु कुन्दकुन्दस्वामीके प्रन्थोमें उनके स्वमुखसे कही विदेहगमनकी चर्चा उपलब्ध नह्दी होती । उन्होंने समयप्राभूतके प्रारम्भमें सिद्धोकी बन्दनापूर्वक निम्न प्रतिज्ञा की है-- वदित्तु सब्वसिद्ध धुवमचलमणोवम गइ पत्ते | चोच्छामि... समयपाहुडमिणमों सुयकेवछीभणिय ॥ 9 ॥। इसमें कहा गया है कि में श्रुतकेवलीके द्वारा भणित समयप्राभृतकों कहूँगा। यदि सीमघर- स्वासीकी दिव्यध्वनि सुननेका थुयोग उन्हे प्रास होता तो उसका चल्लेख वे अवस्य करते । फ़िर भी देवसेन भादिके उल्लेख सर्वथा अकारण नही हो सकते ।




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