सिन्धी जैन ग्रंथमाला | Sindhi Jain Granth Mala

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Sindhi Jain Granth Mala by आचार्य जिनविजय मुनि - Achary Jinvijay Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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किंचित्‌ प्रास्ताविक । ट गुरुके शिष्य-प्रशिष्य परस्पर एक-दूसेरेके विरोधी वन कर गच्छ आर संघके संगठनमें शिथिलता उत्पन करनेक्े निमित्त बन गये । गच्छके इस विरोधी वातात्रणका प्रतिघोष ठेठ जहांगीरके दरबार तक जा पहुंचा । हीरविजय सूरिके शिष्योंमेंसे कईयोंके साथ जहांगीरका बचपनसे ही काफी परिचय था और वह अपने खर्गस्थ पिताकी, इन धर्मापदेशकोंके साथवाली नीतिका यधथोचित पाठन भी करना चाहता । इस लिये उसने जत्र यह सुना कि हीरविजय सूरिके शिप्य, आपसभें अनबन हो जानेके कारण परस्पर एक दूशरेके विपक्षी बन रहे हूं और जिन विजयदेवर सूरिको, दीरविजय सूरिके पटघर विजयसेन सूरिने अपना उत्तरा- घिकारी बनाया है उसके वारेमें कई शिप्य-प्रशिष्य अपना विरोध व्यक्त कर रहे हैं; तब उसने सोचा कि देखना चाहिए कि यह विजयदेव सूरि कौन हैं और कसे हैं ? । नियमानुसार उसने अपना फरमान मेज कर इन सूरिको अपने दरबासें बुछवाये । जढांगीर उस समय माठ्यके मांड्ू दाहरमें था और विज पदेव सूरि खंभातमें चातुमास रहे हुए श्रे । बादशाहकी आज्ञा आते ही सूरिजी मांट्ूं की ओर चलदिये ओर आश्विन सुदि १४ के दिन वहां पहुंच कर बादशाहसे मिले । जहांगीर इनकी विद्वत्ता, तेजसिता और क्रियानि्ट को देख कर बहुत प्रसत्त हुआ; और इनके विपक्षियोंने जो जो बातें, इनके विपयमं उसके सामने कही थीं उनका इनमें -परीतभातर जान कर; उसने इनको खूब सत्कृत किया और यह जाहिर किया कि-दीरविजय सूरिके ये ही यथार्थ उत्तराधिकारी हैं; और इस लिये इनको जद्दांगीरी महातपाकी उपाधि दे कर उस गच्छ्के सचे अधिनायक प्रमाणित किये । इस प्रकार, यद्यपि इन्दीं के गुरुश्राता आदि कहे जानेत्राठे कितनेएक यतिजनों द्वारा इनके ऐकाधिपत्यरम कुछ विश्षेप उपस्थित किया गया और गच्छवासी यतिजन दो-तीन पक्षोंमें विभक्त हो गये; तो भी तत्कालीन जैन समाजमें इनका प्रभाव सोधिक रहा और ये सबसे अधिक ख्यातिलाभ करते रहे । बादशाह जहांगीर के सित्रा, मेत्राडपति राणा जगस्सिड़, जाम- नगराघीश लाखा जाम, इंडरनरेश राय कल्याणमल आदि बहुतसे राजा-महाराजा भी इनका खूब आदर-सत्कार करते थे । जैन समाजके तो हजारों ही बडे बड़े श्रीमानू और सत्तावान्‌ श्रावकगण इनके परम भक्त थे । ये बडे बुद्धिमान और प्रभावशाली तो थे ही, साथ न्रियावान्‌ भी पूरे थे । छठ, अदम आदि उपवास तथा आयंबिठ, निवी आदिकी तपस्या ये निरंतर किया का का करते थे । भोजन जिस दिन करते उस दिन भी प्रायः एक ही वक्त करते । इन्होंने अपनी सारी उम्र में, २ शिष्योंको आचार्य बनाये, २५ शिष्योंको उपाध्याय पद दिये और ५०० को पंडित पद दिये । इनके निजके ह्वाथसे २०० शिष्य दीक्षित हुए और १०० साध्वीयां दीक्षित हुई । सब मिला कर २५०० यति-साघु इनके आज्ञानुवर्ती थे और ७००००० (सात लाख) श्रावक-श्राविकाओंका विशाठ समूह इनकी उपासना करता था । इनके उपदेशसे सेंकडों ही नये जैन मन्दिर बने, अर पुराने सुरक्षित हुए । हजारों जिन मूर्तियोंकी इन्होंने प्रतिष्ठा की । जहां जहां ये गये वहां वहां श्रावक लोकोंने जैनधर्मकी प्रभावना करनेके छिये संघयात्रा, प्रतिष्ठामहोत्सव, साधर्मिकवात्सल्य और दान-पुण्य आदि अनेकानेक सत्क़ृद्य कर लाखों -करोडों रूपये खर्च किये । अपने गच्छनायक गुरु विजयसेन सूरिंकी सृत्युके बाद॒ कोई ४०-४१ तप तक ये इस प्रकार अपने संघका शासन करते रहे। पहले इन्होंने अपने कनकविजय नामक सुोग्य शिष्यको, पाटणमें, सं० १६८१ में आचा्यपद देकर विजयसिंह सूरिके नामसे उद्घोषित कर उन्हें अपना उत्तरधिकारी निश्चित किया था; परंतु दुर्भाग्यवश इनके जीवित काल-ही-में, से० १७०५९ में उनका खगवास हो गया; इससे फिर, वीरविजय नामक एक दूसरे योग्य शिष्यको, सं० १७१० में, गन्घार बन्दरमें रहते हुए नया आचायपद देकर ब्रिजयप्रमके नामसे उनको अपना सर्भाधिकारित्व समर्पण किया । इनका आज्ञानुवर्ती सारा जैन समुदाय, देवसूरसंघके नामसे प्रसिद्ध हुआ और आज भी यह नाम जहां तहां प्रचलित है । सं० १७११ में, उसी ऊना नगरमें, जहां इनके प्रगुरु हीरविजय सूरिका खगवास हुआ था; वहां इनका भी खरगवास हुआ और उसी जगद्ठुरुके समाधिस्थानके पास श्रावकोंने इनका भी पवित्र समाधिस्थान बनाया ।




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