जयसंधि | Jayasandhi

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Jayasandhi  by जैनेन्द्र कुमार - Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आत्मशिक्षण २१५४ 'खले गये रामचरण खाख पर पड़ा श्योंख फाड़े उन्हें देख रहा था । जेसे बह कुछ न समम रहा हो । पिता ने वहीं से पत्नी को हुग्म देकर कहा---” लाना तो खाने को, देखें केसे नहीं खाता है ?”” दिनमसि खाना लेने गइ शोर पिता ने पुत्र को कहा--“ श्रब और तमाशा न कीजिए । हम समसभते थे आप सममदार हैं । लेकिन दीखता हम श्राप इसी तरह बाज आइएगा।”' रामचरण तत्क्ण न उठता दिखाइ दिया तो कड़ककर बोले--“सना नहीं श्रापने, या अब चपत सर ?”” रामचरण सुनकर एक साथ उठकर बंद गया । उसके मुख पर मय नहीं, विस्मय था और वह पिता को आंख फाइकर चकित बना-सा देख रहा था । खाने को थाली आई अर सामने उसकी खाट पर रखदी गई । पर उसकी श्रोर रामचरण ने हाथ बढ़ाने में शीघ्रता नहीं की ! पिता ने कहा--” अब खाते क्यों नहीं हो ? देखते तो हो कि मैंने दफ्तर के कपड़े भी नहीं उतार, कया मैं तुम्हारे लिए कयामत तक यहीं खड़ा रहूंगा ? चलो, शुरू करो ।” रामचरण फिर कुछ देर पिता को देखता रहा । अन्त में बोला--- “पु भूख नहीं हे ।”” “केसे भूख नहीं है ?” पिता ने कहा--“'सबेरे से कुछ नहीं खाया । जितनी भूख ढो उतना खा ।”' रामचरण ने उन्हों फटी आँखों से पिता को देखते हुए कहा “भूख बिल्‍्कुल नहीं हैं ।”” पिता अब तक जब्त से काम ले रह थे । लेकिन थह सुनकर उनका घेय छुट गया श्र उन्होंने एक चॉँटा कनपटी पर दिया, कहा--''मक्कारी श करो, सीधी तरह खाने संग जाओ ।”” इस पर रामचरण बिल्कुल नहीं रोया, न शिकायत का भाव उस पर




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