सतमी के बच्चे | Satami Ke Bachche

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Satami Ke Bachche by राहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२---डीह् बाबा होने पर मी वह उन्हें क्षमा न कर सकते थे | उन्होंने श्रपनी.बेरवरसी को ठुरन्त नहीं स्वीकार कर लिया; लेकिन सैकड़ों वर्षों तक बागी बनकरें?ं छापा मारकर भी, उन्होंने देख लिया कि, अकेला चना माड़ नहीं फोड़ सकता | तो भी पूर्वजों का उष्ण रक्त उनकी नसों में बह रद्दा था । लब श्रपने बच्चों को, पेट की छवाला में ललते देखते, तब वे श्रौर न सह सकते थे । इसीलिए, नीविका के लिए, मज़दूरी श्रौर सूझर पालने के श्रतिरिक्त, उनमें से किन्दों-किन्दीं को चोरी का पेशा भी करना पढ़ता था । वे श्रपने पूर्वजों को कितना भूल चुके थे, यह इसी से स्पष्ट है कि, भर-मातायें कनैला की पुरानी गाथा सुनाते वक्त, श्रपने बच्चों से कहती थीं--“पदले इस कोट पर एक राजा रहता था, उसको बढ़ी रानी ने एक पोखरा ( तालाब ) खुदवाया, जिसके नाम पर पोखरे का नाम “बढ़ी पढ़ा । लहठरी ( छोटी ) रानी ने वह पोखरा खुदवाया जिसे झाज-कल “लहुरिया' कहते हैं । राला की एक लॉंड़ी ने भी एक पोखरा खुदवाया, जो उसकीं जाति के नाम पर “नाउर' कद जाता है ।” वे यद न जानती थीं कि, कनैला का वह्द राजा उन्हीं का पूर्वन था | शेरशाद, अकबर, जहदँमीर और शाइलडों के प्रशान्त शासन में भारत की--विशेषतः उत्तरी भारत की--श्रवस्था बहुत श्रच्छी थी | लूटपाट त्रौर छोटे-छोटे सामन्तों की मारकाट सक गई थी । यद्यपि श्रौरगजेत्र ने श्रकबर की शान्ति श्र सहिष्एपुता की नीति त्याग दी थी; किन्तु उसका युद्ध-क्षेत्र प्रायः दक्षिण-मारत रहा । इस प्रकार सोलहवीं-सन्नदव। शत्तान्दियों में जन-सखया बढ़ने लगी । लोग श्रनुकूल भूमि की खोज में घर छोड़कर, दूर-दूर ज्ञाकर, बसने लगी | सचदवीं शताब्दी के श्रन्त में, सलाँव के पशिडत चक्रपाशि पाँ डे काशी से विद्या पढ़कर घर लौट रहे थे । रास्ते में एक हिन्दू सामन्त के




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