षोडषग्रंथ | Shhodshgranth

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Shhodshgranth by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रीमेदुन्दावनेन्दुप्रकटितरसिकानंदसन्दोहरूपः स्फूजद्वासादिलीठामृतजलघिभरा क्रान्तसर्वो5पि शम्वत्‌ । तैस्येवात्सोनुभावप्रकटनहूद्‌यस्याज्ञयाँ प्रादुरासी- ज्ूमी ये: सन्मनुष्याकृतिरिं तिकरुगिस्तं अरपधि हुताशम्‌ । १ भावाधे--हमेशां, श्रीवृन्दावनेन्दु ( हरि ) ने प्रकट कियो जो रसिकनको आनंद समूहरूप,सुन्द्ररासकों आदिछेकें जो छीछा;सो एक अम्ृतसिन्घु ताके प्रवादसूं आझ्ावित करदिये हें सबेजन जाने; ऐसे, जो श्रीमद्छभाचाये, और अपने प्रभावके प्रगट करवेकी है इच्छा जाकी,; ऐसे उन्ही श्रीमदुन्दावनेन्दुकी आज्ञासूं भूतरुपे अतिकरुणा करकें मनुष्याकृतिकों घारण करते अकटभये. उन अभ्िस्वरूप श्रीवललभाचायेके, में झरण जाऊं हूँ । कॉंडेन समास--श्रीमच तदुन्दावनं च तस्य इन्दुः, तेन अकटितो यो रसिकानंद्संदोहरुपः स्फूजंद्रासादिलीलाइसृतजलबथिभरः, सेन आक्ान्त से: येन सः । आत्मनः अनुभावः आत्मालुभावः, तस्प श्रकटने हृदय यस्प




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