णायकुमारचारिउ | Nayakumarachariu

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Nayakumarachariu  by डॉ हीरालाल जैन - Dr. Hiralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रसावना: १. कवि-परिचय और उनके आधयदाता इस काव्यके कर्ता महाकवि पृष्पदन्त हैं । उन्होंने अपनी तोनो रचनाओ श्र्थात्‌ महापुराण, जसहरचरिउ तथा णायकुमारचरिउकों उत्यानिकाओ, अन्तिम प्रदास्तियो, सन्धि-शीर्षक पद्चों एवं सन्ध्यस्त पुष्पिकाओंमिं महामन्त्रो भरत ओर उनके पुत्र व उत्तराधिकारो नन्नका बहुत कुछ परिचय दिया है । प्रस्तुत ग्रन्थके आदिमें उन्होने कहा है कि उनके समयमे मान्यखेट नगरीके राजा कृष्णराज थे, जिनकी बल्लमराय उपाधि थी । उनके महामन्त्री थे नन्न, जो कौडिप्यगोश्रोय थे । उनके पिताका नाम भरत और माताका कुन्दण्वा था । कविने प्रथम सन्धिके दो कडवको ( तोन और चार ) में उनके गुणोकी बहुत प्रण॑सा को है और कहा है कि उन्होने प्रस्तुत काव्यकी रचना उन्हीके आप्रहसे की । उनके महोदधि, गुणधर्म, शोभन, नाइल्ल तथा दीलैय्या नामक शिष्योने भी उनसे काव्यरचनाकी प्रार्थना की ओर यह भी विनय को कि वे अपनों रचनाकों नघके नामसे अंकित करें । तदनुसार कविने प्रत्येक सन्धिकी पुष्पिका्मे अपने णायकुमारच रिउको “नन्न-नामाकित' कहा है । ग्रन्थके अन्तमें जो एक कड़त्रक तथा छह गाथाएं पायी जाती है, वे कविको प्रशस्ति कहो जा सकतों है। वहाँ कविने अपने काव्यकी परम्परा गोतमगणवरसे बतलाकर तथा उसके पढ़नें-पढ़ानेवालो एवं अपने आश्रयदाता नप्की मगलकामना करते हुए अपने सम्बन्धमें एक महत्त्वपूर्ण बात यह कही है कि उनके माता-पिता मुग्धादेवी भर केशवभट्ट काश्यपगोबीय ब्राह्मण थे । वे पहले शव धर्मावलम्बी थे, किन्तु अपने जीवनके अन्तिम चरणमे उन्होंने एक जैनमुनिका उपदेश पाकर जैनधर्म घारण कर लिया था और वे जैन संन्यासविधिसे मरणकों प्राप्त हुए। इस प्रकार कविको जैनधर्मकी धिक्षा- दोक्षा अपने माता-पितासे ही प्राप्त हुई होगो । गाथाओमे उन्होंने अपने आश्रयदाता महामन्त्री नध्के कौडिन्यगोश्र, माता-पिता कुन्दव्वा और भरतभट्ट तथा उनके शुभतुग नामक राजप्रासादके समस्त कामकाज- का भार धारण करनेका उल्लेख किया है तथा यह भी कहा है कि वें जैनधर्मके बडे भक्त थे । उन्होंने अनेक जैनसन्दिर बनवाये थे भर स्वय जिनदेवकी पूजा-अर्चामे, जैनशासनके उद्धारमें, तथा मुनियोको दान देनेमें सेव तत्पर रहते थे । स्वभावसे वे बडे दयावान्‌, दामी, विद्याव्यसनी और धुद्ध-हृदय थे । उनको ही प्रार्थनासि प्रेशिति होकर पुष्पदन्तने सहूर्ष इस ग्रन्थको रचना की थी । यहाँ तथा आदिके दूसरे कडवकके घत्तामें उन्होने अपनेको “कव्बपिसल्ल' अर्थात्‌ काव्यपिदाच कहा हैं । उनके शिष्योने उनसे प्रार्थना करते हुए उन्हें धागेश्वरी- देवी-निकेत भी कहा है तथा उपाध्याय कहकर उनका सम्बोधन किया है । इससे प्रतीत होता है कि कविने अपने ज्ञान, अध्यापन तथा काव्य-रचनामे इससे पूर्व भो पर्याप्त यश और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली थी । यह इस बातसे भी प्रमाणित होता है कि वे अब तक अपने विशालकाय महापुराणकी रचना कर चुके थे, बयोंकि उसे उन्होंने उसकी सन्धि-पुष्पिकाओंमें नन्नके पिता महाभव्य भरत द्वारा अनुमोदित कहा है। वे भरतसे कैसे मिले, इसका उन्होंने महापुराणके आदिमें बडा मार्भिक वर्णन किया है । आदिके तृतीय कडबकमे उन्होंने कहा है कि जब मान्यखेटमें राजाधिराज 'तुडिगु' अर्थात्‌ तैलुंगु ( तैलंगदेशके नरेदा ) जिन्होंने चोड देशके राजाकों युद्धमें मृत्युको प्राप्त कराया था, राज्य कर रहे थे, तब ये कवि पृथ्वीपर विचरण करते हुए दुर्गम भर दोर्घ मार्गकी यात्रासे नये चन्दरमाके समान क्षोण और दुर्बल होकर इस नगरके बाहम उधानमें आकर विश्नाम करने लगे । उस समय अम्मइया और इंदुरैया नामके दो पुरुष उसके समीप आये और उन्होंने प्रणामकर उनसे कहा कि आप इस निर्जन बनमें क्यो पढ़े हैं, विशाल नगरीमें क्यो नहीं चलते ? इसपर




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