मंजरी - सौरभ | Manjarey-sowrabh

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Manjarey-sowrabh by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ही _ ( रंज ) सकता, क्यो कि बहू जानती है कि में उसका सिर पुरन्त काट डायूँगा | हाँ, दो शिर हों तो चाहे वह उतनी देर चर्ष जि, जब तक में उसका दूसरा शिर भी न फाट लू 1) -जिन्दें यमराज लेना चाहते हैं | कही, किस दरिद्र को राजा मना दूँ ? कहीं, किस सजा को देश से नोहर निकाण! दूँ? हे बरोरू (सुन्दरी) ! छुभ भरा स्वभाव च्ानत दो कि मरा मन तुम्दारे मुस र्प्पी चंद्रमा का चकोर है । हे जरिये ! आल, पुन, परिजन, प्रजा और जो इुर्छ मेरे हैं वे सब तेरे नश में हैं । जी से कुछ कपट कहता होऊँ तो, हे भ।सिनि ! मुके राम की सी बार शपथ है | हँसकर (मख-नता से) मन को भाने बाली बात (वरदान) माँग लो और सुन्दर शरीर पर भूषण धारण करो | अपने ढूपय से विचार कर अवसर कुअवर्सर तो देखो | हे शिय-! कुवेश को शीश त्याग करों ) हे झामिनि ! तेरी इच्छा के अनुसार नंपर में . धर घर आनन्द और बधाई के बाजे, बज रहे हैं। सास को कण हीं युवराज-पद दे रहा हूँ । हे सुलोपने ! (अतः इस आनन्द: _ झवसर पर मंगल साज सजी | ( तन ) झूठा स्नेह चढ़ा, सेन नव और, मुख सोड़कर (मटका करत हँसती हुई न चोली, “( ह्दे प्रिय ! ) आप “सॉगो-मॉगो” तो कहा ही करते है; पर कभी देते लेते नरदीं 1 आपने दो वर भुझे-दिये थे उनके भी पाने में सुभेसन्देद है|” शान्दाय कोहान न रूठेना; पांतक * पाप; शाप घुघषी; दिढाई न पबकी करके; झबिदग नवाज पत्ती; कुलद, (फा० कुगाहू) न्ननोज को आँख को उककन; टोपी; ससिकर न्त चन्द्र किरख, कोइ (कोक) न चकलार सपास चाज: लाना न बटेर श भावाथ॑ सरल है | ् चे




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