श्री सूत्रकृतांग सूत्र | Shri Sutrakratang Sutra

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Shri Sutrakratang Sutra by अंकेता - Anketa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्री सुत्रकृताज्क्‍ सूत्रम्‌ प्रथम शुतरकंध ' समय नामक प्रथम अध्ययन स्वसमयवकक्‍्तठ्यता स्त्राएन'वयााड घुश़्मिजति तिउट्िजा, चंघणं परिजाणिया | फिंमाह चंधर्ण चीरो, कि वा जाएं तिउइई १ ॥ १ ॥ झंधे--इसे संसार में कितनेक लोग श्रकेले ज्ञान से मुक्ति मानते हैं तो कई मतवाले श्रकेली क्रिया से मुक्ति मानते हैं, किन्तु जैन सिद्धान्त के श्रचुसार ज्ञान छौर फ्रिया-दोनों से मुक्ति द्वोती है । यद्दी मान्यता इस गाथा में प्रदर्शित करते हुए सुत्रकार कहते हैं--मनुष्य को वोध प्राप्त करना चाहिए और चन्धन को श्र्थात ज्ञानावस्णु श्रादि त्ञाठ कर्मों को व्ययवा बंधन के कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय एवं योग को श्रयवा झ्ारंभ-परिम्रद को ज्ञपरिज्ञा से जानकर त्यागना चाहिए । श्रीसुधर्मा स्वामी के इस प्रकार कहने पर श्रीजम्बू स्वामी प्रश्न करते हैं- सगवान्‌ महावीर ने बन्घन किसे कहा है ? श्मौर क्‍या लानकर वन्वन को दूर करना चाहिए १ ॥ १ ॥। चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिज्क किसामवि | झण्ण वा अणुजाणाइ, एवं दुब्खा ण मु ॥ २ ॥ हि शर्थ--मनुप्य पशु दि सचित्त तथा दख श्याभूपण मकान श्रादि श्मचित्त ्‌ पदारधों को '्यवा उमय रुप पदार्थों को थोड़ा-सा भी प्रदण करता दै-परिप्रद रुप प्र




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