समय सार - कलश | Samay Saar - Kalash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( रेड 9) जीव श्र फर्मका . परस्पर क्या सम्बन्ध है-इंस तथ्यकों स्पष्ट करते हुए . कलश ५.० की टीकामें लिखा है-- जीव द्रव्य ज्ञाता हैं; पुदुगलकर्म ज्ञेय है ऐसा _जीवकों : कमकों ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है, तथापि व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध नहीं है, द्रव्योंका अत्यन्त मिन्नपना है, एकपना. , नहीं है ।' कर्ता-कर्म-क्रियाका ज्ञान कराते हुए. कलश ५१ की टीकामें पुनः लिखा है-- _. “कतो-कर्म-क्रियाका स्वरूप तो इसप्रकार है, इसलिये ज्ञानावस्शादि द्रव्य पिरडरूप कमका कंतो जीवद्रव्य है ऐसा जानना झूठा. है, क्योंकि जीवद्रव्यका ओर पुदगलद्रव्यका स्‍द सन्त ४ रा एक सत्त्व नहीं; कतो-कमं-क्रियाकी कोन घटना ?” इसी तथ्यको कलश ५२-५३ में पुनः स्पष्ट किया है-- ज्ञानावरणादि, दव्यरूप पुद्लपिर्ड कर्मका कतो जीववस्तु है .ऐसा जानपना मिथ्याज्ञान है, क्योंकि _एक सत्त्वमें कताो-कम-क्रिया_उपचारसे,_कद्दा. जात [ है। सिन्न, सत्त्वरूप है जो जीवद्रव्य-पुद्ल द्रव्य उनको कताो-कमें-क्रिया क़हाँसे.घटेगा, ? “'जीवद्रव्य-पद्नलद्व्य भिन्न सत्तारूप हैं सो जो पहले भिन्न सत्तापन छोड़कर एक. सत्तारूप होवें तो पीछे कता-कम-क्रियापना घटित हो । सो तो .एकरूप होते नहीं; इसलिये जीव-पुदूगलका आपसभमें कता-कम-क्रियापना घटित, नहीं होता ।' जीव श्रज्ञानसे विभावका कर्ता है इसे स्पष्ट करते हुए कलश ५८ की टीकामें लिखा है - “जैसे समुद्रका स्वरूप निश्चल है, वायुसे प्रेरित होकर उछलता है और उछलनेका करता भी होता है, वैसे ही जीव द्रव्यस्वरूपसे 'अकतां है। कम संयोगसे . विभावरूप परिणमता है, इसलिये विभावपनेका करो भी होता है । परन्तु अज्ञानसे, स्वभाव तो नहीं | जीव श्रंपने परिणासका कर्ता क्यों है श्रौर पुदूगल कर्मका कर्ता क्यों नहीं इसका स्पष्टीकरण कलश ६१ की टीकामें इसप्रकार किया है-- “जीवद्रव्य झशुद्ध चेतनारूप परिणमतता है, शुद्ध चेतनारूप परिणमता है, इसलिये जिस कालेमें जिस चेतनारूप परिणमता है उस कौलमें उसी चेतनाके साथ व्याप्य- ककननन्करकरनननडा व्यापकरूप हैं, इसलिये उस कालमें. .उसी चेतनाका.. कर्ता. है । तो. भी पुदूगल, पिरडरूप ' जो ज्ञानावरणादि कम है उसके साथ तो व्याप्य-व्यापकरूप :तो नहीं हैं । इसलिये उसका कतो नहीं. है. ।' जीवके रागादिभाव श्रौर कर्म परिणाममें निमित्त-नेमितिफभाव क्यों है, कर्ता-कर्मपना . क्यों नहीं इसका स्पष्टीकरण कलश ६८ की टीकामें इसप्रकार किया है-- 'जैसे कलशरूप स्रत्तिका परिणमती है, जैसे कुम्भकारका. परिणाम उसंका वाद्य ' निसित्त कारण है, व्याप्य-च्यापकरूप नहीं है उसीप्रकार ज्ञानावरणादि . कस . पिरडरूप ._ पुदुगलद्रच्य स्वयं, व्याप्य-व्यापकरूप है। तथापि जीवका अशुद्धचेतलारूप सोह, राग देंपादि परिणाम बाह्य निसित्त कारण है, व्याप्य-व्यापकरूप तो नहीं हैं । वस्तुमात्रका .: श्रनुभवशीली जीव परम सुखी कैसे है इसे रप्ट करते हुए; फलश ६४६ की - टीका में कहा है-- .




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