श्री संक्राचार्य | Shri Sankaracharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आत्मवोध! ध् आत्मचेत्तन्वमाश्रिय देहेन्द्रियमनोधिय! । स्वकीया्थेषु॒वर्तेन्ते सूर्याठोक॑ यथा जनाः* ॥२०॥ देहेन्द्रियगणान_ कर्माण्यमले सचचिदात्मनि । अध्यस्यन्यविवेकेन गगंने सीलतादिवत्‌ ॥ २१ ॥ अज्ञानान्मानसोपा पे! रत त्दादीनि सापति । कल्प्यन्तेडम्बुगते चन्दें चठनादि यथार्म्मसः ॥२२॥ रागेच्छासुखदृश्लादि 5द्धी सयां भर्वीते । सुपुप्नी नाश तन्नाशे तस्पादुद्धेस्तु नात्मन' ॥ २३ ॥ कि छ् प्रकाशो 5सीरय तोयस्य देयमग्े्थोप्णता । स्वभावस्पन्विटानन्दनियनिभेलता55त्पन ॥ २४ ॥ आत्यनरपणिदंदाश्र बुद्धडूत्तिरित द्रयमू । . , संयोज्य याविवेकेन जानामीति प्रचतेते ॥! २५ ॥ कक आत्मनों पिक्रिया नाम्ति दुद्धेबोधी ने जाल्यिति' । जीवरस्मर्वभ् शाला कर्ता द्रप्रेंल मुद्यति ॥ २६ ॥ रज्जुसर्पत्रदात्मानं जीपें ज्ञात्या भय सयेतू । नाहं जीव! परात्मेति ज्ञातश्रेत्निमेयों भवेत ॥ २७ ॥ आत्माघवभसयसेकों बुद्धयादीनीन्द्याणि हि । दीपो घटादिवत्स्वात्मा जडेस्तेनाविभास्णते ॥ २८ ॥ स्ववोधे नान्यव,पेच्छा दोघरूपतया 55त्पन' । न दीपस्यान्यर्दीपेच्छा यथा स्वात्मप्रकाशने ॥ २९ ॥ सकेपु चित्कोशेषु शोक्रोथ्य॑ न. दृश्यते. गजात्वापे, ध्ज्ञाता, *ण्युप्ि




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