अहंकार | Ahankar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8.25 MB
कुल पष्ठ :
256
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया। उनक
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand) ९
बृद्धावस्था पास न झाये, तो वद कुछ भय से, कुद उसे जुब्ध करने के
किये उसके साथ संभोग करने को प्रस्तुत दो जाती है । यद्यपि पाप-
नाशी की संयमशील्षता उसे इस प्रलोभव का शिकार होने से बचा लेती
है, तथापि थायसर की यद विलज्जता कुछ भ्रस्वाभाविकन्सी प्रतीत दोती
है । वेश्यावें भी याँ सदके साथ अपनी लाल नहीं खोया करतीं । उनमें
भी की साच्ना होती है, विशेषतः लव चद थायस की भाँति
विपुल्-घन-सस्पन्ना हों ।
पापनाशी के चरिन्नचिन्रण में थी को बात खटकती है वद्द धनैसरगिक
विपयों का समावेश है। लव चढ़ थायस कां उद्धार करने के लिये इस्क-
नदिया पहुँचा है ठस समय उसे एक स्वप्न दिखाई देता है, लो उसके
स्वर्ग नरक के सिद्धान्त को श्रान्ति में डाल देता है। इसी भाँति लव
वह थायस को घाश्नम में पहुँचा कर फिर झपने शाधम में लौट थाता
है तो उसकी छुटी में मीदूढों की भरमार होने लगती है । एक श्र
उदाइरण लीजिये । लव वह स्तम्भ पर बैठा हुआ तपस्या करता है तो
एक दिन डसके कानों में छावाज़ आती है, पापनाशी “उठ और ईश्वर
की कीठि को उज्वक्त कर, दीसारों को शारोग्य प्रदान कर' इसके वाट वही
झावाज़ उसे फ़िर स्तम्भ से नीचे उत्तरने को कदती है, किन सीढ़ी द्वारा
नहीं, बदिफ फाँद कर । पापनाशी की चेटा करता है तो उसके
कानो में दँसी की झावाज़ झाती है । तब प्रापनाशी भयसीत दोकर
चौंक पढ़ता है। उसे विदित्त दो रू है।कि शैतान सुके परीक्षा में
डाक्त रहा दै। इन शंकाथों का समाधान /शिवल इसी विचार से किया
ज्ञा सकता है कि यह सब पापनाशी के हृदय के विदार थे
जो यदद रुप घारण वरके उसकी इच्छाओं और भावों को
प्रगट करते थे । लो सनुष्य यदद कहे
'. “सद्पुरुषों की आात्मायें दुर्छो की या से कहीं ज़्यादा कल्लु-
पित दोती हैं, क्योंकि समस्त संसार के पाप उसमें प्रविष्ट होते हैं ।'
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