सत्यार्थ प्रकाश | Satyarth Prakash

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Satyarth Prakash  by मद्दयानन्द सरस्वती - Maddayanand Saraswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सत्पार्थप्रकाश सनातन आर सष्टिकर्ता आदि विशेषण लिखे हैं, वहीं वीं इन नामों से परमेश्वर का ग्रहण होता है ओर जहां जहां ऐसे प्रकरण हैं किः-- त्तों बिराद॑जायत बिराजा अधि पर: । | बज ३१ । ४] ॥ शेखादुदायुर प्राणण्य मुखौदुच्िरजायत । [ ग्यु १११२] ॥ वैन देवा अपजन्त । [.ब्जु 3१1 ] ७ पराद्मिम्थों पुर: । बज ० १! । मर [४] 0 तस्माड़ा शतस्मादास्मन आकाश: सम्थूतः । आकाकाइापु: । बायोरपि: । अपेराप: । जद्भप, पृथिगी । एथिव्या ओरघय: । ओपधिम्योस्‍्समू । अस्त: । रेतसः पुरुष: । स था एप पएरवोब्सरसमय, ॥ यह तेतिरीयोपनिषद्‌ ( त्रह्मा० १ ) का क्चन है । ऐसे प्रमाणों में विराट, पुस्ष, देव अकाश, वायु, अग्नि, जल, सूमि आदि नाम लोकिक पदार्थों के होते हैं । क्योंकि जहां जहां उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, अल्प, जड़, दृश्य आदि विशेषण भी लिखे हों वहां परमेश्वर का ग्रहण नहीं होता । वह ना है। और उपरोक्त मन्त्रों में उत्पत्ति झादि व्यवहार हैं, इसी से यहां विराट शादि न होके संसारी पदार्थों का ग्रहण होता है । किन्तु जहां जहां सर्वज्ञादि विशेषण हों वहां वहां परमात्मा; भ्रोर जहां जहां, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख ओर अल्पज्ञादि विशेषण हों वहां वहां जीच का ग्रहण होता है । ऐसा सत्र सममना चाहिये । क्योंकि परमेश्वर का जन्म मरण कभी नहीं होता । इससे विराट झादि नाम ओर जन्मादि विशेषणो से जगत्‌ के जड़ भर जीवादि पदार्थों का ग्रहण करना उचित है, परमेश्वर का अब जिस प्रकार विराट आदि नामों से परमेश्वर का ग्रहण होता है, वह प्रकार नीचे लिखे प्रमाण जानो । अथ भोड्ठारार्थ---'वि' उपसर्गपूर्वक 'गाजू दी्तो' इस घात से स्विपू भ्रत्यय करने से “विराट” शब्द सिद्द होता है । “यो विविध॑ नाम चराघ्चर॑ जगद्राजयति प्रकाशयति स सिराट'' विविध अर्थात्‌ जो बहु प्रकार के जगत को प्रकाशित करे इससे विराट्*” नाम से परमेश्वर का यहण होता है। 'अच्च गंतिपूजनयो:' 'अग भअगि, इणू गत्य्थक' धातु हैं इनसे “अग्नि” शब्द सिद्ध होता है । “गतेस्त्रयो््या: ज्ञान गमन॑ प्राप्ति शव ति, पूजन नास सत्कार:” “'योश्चति अच्यतेज्रात्यक्त्येति वा सोध््यमस्निः” जो ज्ञान स्वरूप, सर्वज्ञ, जानने, प्राप्त होने भर पूजा करने योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम “अग्नि” हे । 'विश प्रवेशने' इस धातु से “विश्व” शब्द सिद्ध होता है। “विशन्ति प्रदि छ्टानि सर्वारयाकाशादीनि झतानि यस्मिन्‌ यो वाध्प्काशादिइ सर्चेषु भ्ूतेषठ प्रविषट: स विश्व ईश्वर” जिसमें ाकाशादि सब भ्रूत प्रवेश कर रहे हैं, अथवा जो इनमें व्याप्त होके प्रकट हो रहा है, इसलिये उस परमेश्वर का नाम “विश्व””* है। इत्यादि नामों का ग्रहण झकार- मात्रा से होता है। “ज्योतिवें दिरक्य॑ ( शत० ७ । ४1१1५) तेजी वे हिरगयम ( ऐ० १५८1 ६१) इत्येतरेये शतपथे च ओ्राह्मणे' “यो दिरणयानां सूर्यादीनां तेजसां गर्भ उत्पत्तिनिमित्तमधि हिरणयगर्भ:', जिसमें सूर्यादि तेजवाले लोक उत्पन्न होके जिसके आधार रहते हैं अथवा जो सूर्यादि तेजःस्वरूप पदार्थों का गर्म नाम उत्पत्ति और निवास स्थान है, इससे उस परमेश्वर का नाम दिररयगर्म ” है । इसमें यज्जवेंद के मन्ब का प्रमाण है--




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