अर्थशास्त्र के आधुनिक सिद्धान्त | Earth Shastra Ke Addunik Shiddhant

Earth Shastra Ke Addunik Shiddhant by पी. सी. जैन - P. C. Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मुद्रा का अर्थ तथा महत्व ११ उस समय तक जारी रह सकती है जब तक पूर्ण-वृत्ति (दि €प्णुजे0फ्रणाटाए को स्थिति न हो जाय । यदि मुद्रा की पति में वस्तुओं और सेवाओं की मात्रा की अपेक्षा कमी हो जाय और ब्याज की दर में वृद्धि हो जाय तब वस्तुओं और सेवाओं के गिरते हुए मृल्य के कारण उत्पादन में कमी हो जायेगी तथा ठीक विपरीत प्रक्रिया जारी हो जायगी । वस्तुओं और सेवाओं की पुर्ति की अपेक्षा मुद्रा की पुति में अधिक कमी हो जाने के कारण लोगों की आय, तदनुसार उनकी क्रय झाक्ति कम हो सकती है जिससे आर्थिक मन्दी की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी जो अन्ततोगत्वा वृत्तिहदीनता, राष्ट्रीय आय तथा मुद्रा में कमी, सवव्यापी कष्ट उत्पन्न करने में सहायक सिद्ध होगी । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मृद्रा की मात्रा में परिवर्तन उत्पादन पर गहरा प्रभाव डालती है जिसके कारण लोगों की आय, उनकी क्रय रक्ति तथा सामान्य मूल्य स्तर थी प्रभावित होते हैं । इसका अथ यह हुआ कि यदि मुद्रा की मानना तथा वस्तुओं और सेवाओं की पुर्ति में समुचित सन्तुलन उचित मौद्रिक व्यवस्था करके न स्थापित किया जाय तो लोगों को अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि मुद्रा के मुल्य में हुए परिवतंनों से न केवल उत्पादकों तथा उपभोक्ताओं के हितों को हानि होती है वरन्‌ ऋण देने वाले तथा ऋण लेने वाले व्यक्तियों को भी हानि होती है । अन्तर्राष्ट्रीय जगत में भी मुद्रा ऊष्ण मुद्रा (५01 ग्राए071 6) का रूप ग्रहण कर अनेक जटिलताओं को उत्पन्न कर सकती है । सामान्य स्थितियों में एक देश से दुसरे देश में मुद्रा ब्याज की दर में परिवर्तन तथा विभिन्न देशों में पूँजी की अर्ज॑न क्षमता के कारण हस्तान्तरित होती रहती है । इस प्रकार से पूजी की गतिथीलता विभिन्‍न क्षेत्रों के आर्थिक विकास में सहायक होती है । परन्तु कभी-कभी पु जी-- ऐसी स्थिति में हम उसे ऊष्ण मूद्रा कहते हैं--एक देश से दूसरे देश में राजनीतिक अस्थिरता तथा पूर्वकल्पी लाभ की आशा से हस्तान्तरित होती रहती है। इस प्रकार की पुजी की अन्तर्राष्ट्रीय गतिशीलता विभिन्‍न मुद्राओं के विनिमय दर में अस्थिस्ता उत्पन्न कर सकती है जिससे विदेशी विनिमय में अस्तव्यस्तता तथा अनियमिता उत्पन्न हो सकती है । मानव जाति का उद्देदय आनन्द की प्राप्ति है और यह नहीं कहा जा सकता कि मुद्दा तथा आनन्द एक साथ सम्भव हैं । यदि किसी व्यक्ति के पास प्रचुर मृद्रा नहीं है तथा वह आवश्यकता विह्वीन होने में भी नहीं समथं हो सका है तब उसे बहुत कष्ट होगा क्योंकि उसकी बहुत सी आवध्यकतायें असन्तुष्ट रह जायेंगी । यदि किसी व्यक्ति के पास मुद्रा की मात्रा अत्यधिक है तथा उसे मृद्रा का उचित




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