गजेन्द्र व्याख्यान माला चतुर्थ भाग | Gajendr Vyakhyan Mala Part- 4
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
211
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)की [ गजेन्द्र व्याख्यान साला
निर्माण नहीं कर रहे हैं। आप पर पर तो वैठे हैं जैन के--जेन के
पद पर बैठनेवाले को, अपने विकारों को, मानसिक दुबेलताओं को
जीतने का यत्न करना चाहिये । क्योंकि काम, क्रोध, मद, लोभ श्र
राग, द्वेप को जीते वही जैन होता है । जैसा कि कहा है--एकप्पा
प्रजिहसत्तू कसायाइंदियाणिअ, ते जिणित्त_ जहानायं, विहरामि
जहासुहं । दोष मुक्त होने से वह सदा सर्वत्र निर्भय रहता है । परन्तु
जिस व्यक्ति को उल्टे क्रोध और काम आदि जीतले, वह क्या
कहलायेगा ? हम आज अपने भक्तों को इस रूप में देखते हैं कि
क्रोध ने उनको जीत लिया, लोभ ने जीत लिया है ।
चतुर्मातत के इस धर्मकाल में कुछ बहनें तपस्या कर रही हैं
परन्तु उनमें भी ऐसी बहुत थोड़ी बहिनें होंगी जो लालच के प्रसंग
आने पर उससे मुख मोड़ ले, उसे जीत ले । भोजन से मुख मोड़ने-
वालो बहन से तपस्या के प्रसंग में बन्धुजनों से मिलनेवाली भेंट से
मुह मोड़ने को कहा जाय तो थोड़ी ही वहिनें होंगी जो भेंट को
स्वीकार न करें । वे अपने सगे सम्बन्धियों के आने के प्रसंग से पौषध
के लाभ को छोड़ सकती है, परन्तु धन के लाभ को नहीं । वे पौषध
की महिमा को स्वीकार तो करती हैं, किन्तु लाभवाले दिन में नहीं ।
कारण उन्होंने अन्तरंग दोषों पर विजय नहीं पायी ।
मेरा मन चाहता है कि आज यहाँ कुछ ऐसी नमूनेदार बाई
मिले जो धर्म के इस प्रसंग में भेंट देनेवाले भाई को साफ-साफ कहें
कि इस समय सुक्कको कुछ नहीं चाहिये । मैं तो हमेशा आपसे लेती
रहूंगी और आप देते रहेंगे । परन्तु इस समय हमने तप किया है । इस
समय कुछ भी लेना लोभ के आगे, लालच के आगे, अपनी हार श्रौर
हँसाई मानने जैसी बात होगी । ऐसी साफ-साफ बोलनेवाली
तपस्विनो को धन्यवाद है ।
लोक व्यवहार में कभी ऐसा भी मौका आता है कि व्याही
लोगों के यहाँ जाकर भी आप नहीं खाते हैं । घर में शोक आदि होने
से भी श्राप अपने सगे-सम्बन्धी के यहां खाने से इन्कार कर देते हैं ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...