दिव्य जीवन | Divya Jeevan

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Divya Jeevan  by श्री अरविन्द - Shri Aravind

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8 दिव्य जीवन किन्तु, यह बात भी हमें दरीरमें रहकर जीवन बितानेके प्रति होने- वाली विरक्तिसे बचानेके लिये पर्याप्त नहीं है। इसके लिये आवश्यक है कि, उपनिषदोंकी भाँति, हमें जीवनके इन दो चरम छोरोंके बाह्म रूपोंके पीछे विद्यमान उनकी सारभूत एकताका भी बोध हो जाय, और यह बोध प्राप्त करके हम उन पुरातन ग्न्थोंकी ही भाषामें कहने लग जायँ--“अन॑ ब्रह्म”--जड़तत्व भी ब्रह्म है, और उस सशक्त रूपकको पुरा-पूरा मूल्य दे सकें जिसने भौतिक विस्वको दिव्य पुरुषका बाह्म शरीर कहा है। और, जड़तत्व और आत्मा, ये दो चरम छोर इतने विभकक्‍त प्रतीत होते हैं कि उनकी एकता युक्तिपूर्ण बुद्धिकि लिये तबतक विश्वासप्रद नहीं होती जबतक कि हम आत्मा और जड़के बीच (प्राण, मन और अतिमानसके और मनको अतिमानससे संयुक्त करनेवाली श्रेणियोंके ) आरोहण-पदोंके अनुक्रमको स्वीकार न करें। नहीं तो ये दोनों किसी मेछकी संभावनासे परे एक-दूसरेके विरोधी प्रतीत होंगे, ऐसा प्रतीत होगा मानो यह एक दुःखदायी गठबंधन है और इसका बिच्छेद ही एकमात्र युक्तिसंगत समाधान है। तब इनको अभेद रूपमें देखता, एककी व्याख्या दूसरेकी भाषामें करना, तथ्य-संगत स्यायके विरुद्ध विचार-शक्तिकी एक कृत्रिम सृष्टि बन जाता है और केवल अयौक्तिक रहस्यवादके लिये ही संभव होता है । यदि हम केवल विशुद्ध आत्मा और एक यंत्रवत्‌ अचित्‌ वस्तु या ऊर्जाको मान्यता देते हुए, प्रथमको ईश्वर या पुरुष और द्वितीयको प्रकृतिका नाम दें, तो अपरिहारय॑ अंत यह होगा कि हम या तो ईर्वरको अस्वीकार करेंगे या फिर प्रकृतिकी ओरसे मुंह मोड़ लेंगे। क्योंकि तब “विचारों और “जीवस' दोनों ही के लिये -निर्वाचन करना आवदयक हो जाता है विचार या तो ईश्वरको कल्पनाका श्रम सानकर या प्रकृतिकी इच्द्रियोंका भ्रम मानकर अस्वीकार करने लगता है; और जीवन, वह, विरकक्‍्त होकर, या. आत्म-विस्मृतिकारी आनन्दमें विभोर होकर, अभौतिकका अनुरागी होकर, अपने-आपसे भाग खड़ा होता है या फिर अपने अमृत्तत्वको ही अस्वीकार करता है और ईइवरसे मुँह मोड़कर पशुकी ओर चल पड़ता है। पुरुष और प्रकृतिमें, सांख्योंके निष्क्रिय रूपसे प्रकाशमय पुरुष और उसकी यंत्रवत्‌ क्रियाशील शकक्‍्तिमें कहीं कोई समानता नहीं है, उनके निश्चेष्टताके विरोधी तत्वोंमें थी कोई समानता नहीं है। उनके विरोधोंका समाधान केवल एक ही प्रकार हो सकता है कि यह जड़वत्‌ संचाछिति “क्रियाशीलता' जिस अक्षर 'विश्वांति'पर अपने प्रतिवविवोंकी निष्फल धारा व्यथैमें डाऊती रहती है, उसी विश्वांतिमें पहुँचकर समाप्त हो जाय ।




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