हिन्दी काव्य प्रवाह | Hindi Kavya Pravah

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Hindi Kavya Pravah by पुष्पा स्वरूप - Pushpa svarup

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हू आदि कवि अपनी पाँच दताब्दियों में सिफ॑ घास नहीं छीलते रहे। उन्होंने काव्य निधि को और समृद्ध भाषा को और परिपुष्ट करने का जो सहान्‌ काम किया है, हमारे साहित्य को उनकी जो ऐतिहासिक देन है, उसे भूलाकर, कड़ी को छोड़ कर, सीधे संस्कृत के कवियों से सम्बन्ध. स्थापित करना हमारे साहित्य और हिन्दी भाषा दोनों के लिए हानिकर सिद्ध हुआ है। हम संस्कृत कवियों से सम्बन्ध जोड़ने के विरोधी नहीं हैं। लेकिन हमें, इस बीच की कड़ी, जो अपनी ही कड़ी हू को लेते संस्कृत के प्राचीन कवियों के साथ सम्बन्ध जोड़ना होगा। तभी हम ए तिहासिक विकास से पुरा लाभ उठा सकेंगे ।” इसी संदर्भ में हमें अपभ्रंश भाषा का अध्ययन करना चाहिए। यह भाषा कभी मुल्तान से गुजरात तक और गुजरात से बंगाल तक फली हुई थी और एक प्रकार से यह इतने बड़े क्षेत्र की राष्ट्र भाषा सरीखी थी । अब्दुरंहमान मुल्तान के रहने वाले थे। सिद्ध सरहपा और दबरपा बिहार-बंगाल के निवासी थे। और स्वयंभू और कनकामर उत्तर प्रदेश के अवधी और बुन्देलखण्डी क्षेत्र के थे। हेमचन्द्र और सोमप्रभ गुजरात के निवासी थे। “इस प्रकार हिमालय से गोदावरी ओर सिंध से ब्रह्मपुत्र तक ने इस साहित्य (अपभ्रंश साहित्य) के निर्माण में हाथ बँटाया ।'' सिद्धों के साहित्य के सम्बन्ध में अनेक बातें कही जाती हैं। उनकी भाषा पर अनगढ़पन का आरोप लगाया जाता है। परिमाजंन की कमी, रचाव और सँवार-सिंगार का अभाव सिद्ध कवियों की भाषा औरक्ौली का दोष माना जाता है। अर्थ की दुर्बोधता और अस्पष्टता भी एक बड़े दोष के रूप में गिनायी' जाती है। मगर सही यह है कि उनकी भाषा बिलकुल सहज और सरल तथा बोघ- गम्य है। राहुल जी के दाब्दों में, “लाखों नर-नारियों को उनमें रस, एक तरह की आत्म-तृप्ति मिलती थी। और आज भी उस तरंह की मनोवत्ति रखने वाले कितने ही पाठकों को वह उतनी ही रुचिकर मालूम पड़ती है । इसलिए उन्हें कविता मानना ही पड़ेगा।”' ये सिद्ध कवि सारी पुरानी सामाजिक और नैतिक मान्यताओं को छिन्न- भिन्न कर डालना चाहते थे। वे लीक छोड़कर चलना चाहते थे, अपना रास्ता खुद बनाना चाहते थे । वे सहज जीवन के पक्षपाती थे। वे संघष और आशावाद के कवि थे। वे स्वयं अपने व्यक्तिगत सुख-ऐइवर्य को त्याग कर, विलास वैभव से मुँह मोड़कर अपने स्वच्छन्दतावादी विचारों के प्रचार के लिए अपना सर्वेस्व होम कर देते थे। सरह नालत्दा विश्वविद्यालय के ब्राह्मण आचार्य थे। उन्होंने अत्यन्त साधारण कुछ की अन्नाह्मण कन्या को अपनी जीवन संगिनी बनाया । सरह ने सभी. पंथों के और स्वयं अपने पंथ के पाखण्डों का खण्डन किया । वह आजश्ञावादी विचारक थे। बह ॒योग-वराग्य से लोगों को विमख करना चाहते




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