सनत्कुमार चक्रचरित महाकाव्यम | Santkumar Chakricharit Mahakavyam

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Santkumar Chakricharit Mahakavyam (1969)grant 108 Ac 4857 by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ६ ] रहता था । उस पण्डित को जिनप्रियोपाध्याय के शिष्य श्री जिनभद्र सुर (जिनदास ) ने जिनपतिसुरिजी के साथ दास्त्राथं करने को उकसाया । प० मनोदानन्द ने दिन के दुसरे पहर पौषघशाला के द्वार पर शास्त्रार्थ का पत्र चिप- काने के लिये झ्रपने एक विद्यार्थी को भेजा । दिन के दुसरे पहर के समय उपाध्रय में ध्राकर वह पत्र चिपकाने को तैयार हुमा । श्री पुज्यजी के दिव्य घर्मरुचि गणि ने विस्मय-वद् होकर झलग ले जाकर उससे पुछा--'यहां तुम कया कर रहे थे ।' ब्राह्मण बालक ने निभेय होकर उत्तर दिया कि--'राजपण्डित मनोद।नन्दजों ने श्रापके गुरु जिनपतिसुरिजी को लक्ष्य करके यह पत्र चिपकाने को दिया है ।' उस विद्यार्थी की बात सुनकर हंसते हुए घमरुचि गणि ने कहा--रे श्राह्मणण बालक ! हमारा एक सदेदा पण्डितजी को कह देना कि श्री जिनपतिसुरिजी के शिष्य घमें- रुचि गणि ने मेरी जबानी कहलवाया है कि प० मनोदानन्दजी ! यदि श्राप मेरा कहना मानें तो श्राप पीछे हट जायें तथा शभ्रपना पत्र वापिस ले लें, भ्रन्यथा श्रापके दाँत तोड़ दिये जायेगे । श्रभी न सही किन्तु बाद में श्राप श्रवश्य ही मेरी सलाह का मूल्य समभेंगे ।' उसी विद्यार्थी से पं० मनोदानन्द के विषय में जानने योग्य सारी बाते पूछकर उसे छोड़ दिया । घ्मरुचि गणि ने यह समस्त वत्तान्त श्री पुज्यजी के आगे निवेदन किया । वहां पर उपस्थित ठ० विजय नामक श्रावक ने शास्त्राथे-पत्र सम्बन्धी बात सुनकर श्रपने नौकर को उस पत्र चिपकाने वाले विद्यार्थी के पीछे भेजा श्रोर कहा कि--'तुम इस लड़के के पोछे-पीछे जाकर जाच करो कि यह लड़का किस-किस स्थान पर जाता है । हम तुम्हारे पीछे ही झा रहे हे।' इस प्रकार झरादेश पाकर वह नौकर उक्त कायें का भ्रनुसन्घान करने के लिये लड़के के चरण-चिह नों को देखता हुथ्रा चला गया । श्रनेक पण्डित-प्रकाण्डों को शास्त्राथं में पाड़ने वाले प्रगाढ विद्वान यशस्वी श्रीजिनपतिसूरिजी ने झ्रपने श्रासन से उठकर, श्रपने श्रनुयायी मुनिवरों को कहा कि-- 'दो।घ्र वस्त्र-घारण करो श्रीर तंयार हो जाशो, शास्त्राथे करने को चलना है ।' स्वय भी तैयार हो गये । महाराज को जाने को तैयार देखकर जिनपालो- पाध्याय भ्ौर ठ० विजय श्रावक कहने लगे, “भगवन्‌! यह भोजन का समय है, साधु लोग दूर से विहार करके श्राये हैं इसलिये श्राप पहले गोचरी (भोजन) करें । बाद में वहां जायें ।' उन लोगों के अ्रनुरोध से महाराज भोजन करके उठे । जिनपालोपाध्याय ने पूज्यश्नी के चरणों में वन्दना करके प्राथ॑ता की-- १, यु० गुर्वावली, पृ० २० के घ्ननुसार इनकी दीक्ष। स० १२१७ में हुई थी । इनकी रचित झपवगनाममालाकोष प्राप्त है 1




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