प्रबोधचन्द्रोदयम | Prabodhachandrodayam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है. “दे. 3 विद्या भर प्रबोधचन्द्रका उदय हुआ । विद्या विजली की तरह कान्ति से दिशाओं को बलोकित करती हुई, मन के वक्ष: स्थल को विदीर्ण कर परिकर सहित मोह को ग्रस्त करती हुई श्रन्तहिंत हो गयी भ्ौर प्रबोधोदय, पुरुष को प्राप्त हुआ । प्रवोधोदय होने से सबका अज्ञानान्वकार दूर हुआ प्ौर विष्णुभक्ति को ऊपा से पुरुप वन्घन मुक्त हुआ । कंगना दाशंनिक प्रतीक नाटक : नाठ्य साहित्य संस्कृत नाव्य साहित्य में 'प्रवोधचन्द्रोदय” श्रादि कतिपय ऐसे नाटक हैं जिनमें अमूर्त भावों और गुणों को गतिशील मानव की तरह चित्रित करने का प्रयास किया गया है । ऐसे नाटकों को प्रतीक नाटक, छायाटठक अथवा भावनाटक की संज्ञा दी जा सकती है । सम्भव है कि दार्धमिक गूढ भावों का. विशद एवं सुगम रूप से प्रभावशाली चित्रण करने के उद्देश्य से ऐसे नाटकों की रचना का सुत्रपात्त हुआ हो और यह भी सम्मव है कि श्रीमद्भागवत्त के चतुर्थ स्कन्ध में २५ वें क्षध्याय से २६ में अध्याय तक चलने वाली पुरझ्न को दार्शतिक प्रतीक कथाएँ प्रेरक रही हों किन्तु ऐसी रचनाएँ बहुत परवर्त्ती हैं और इनकी संख्या भी श्रधिक नहीं है भरत: संस्कृत नाव्य साहित्य के प्रारम्भिक विकास में योगदान की दृष्टि से इनका कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं है। ऐसी रचनाओं का केवल इस दृष्टि से मददत्व है कि इनमें असूर्त भावों एवं गुणों का सानवी-करण हुआ है जो नाव्यघाहित्य में एक मौलिक नवीन प्रयास कहा जा सकता है किन्तु यह भी श्वधघेय है कि इस दीली के नाटक यदा-कदा छुट-फुट बनते हैं अत एवं इनकी कोई अलग क्रम-बद्ध परम्परा स्थापित नहीं हो सकी श्ौर न ही इस शैली का कतिपय दोषों के कारण भधिक विकास ही हो सका । ऐसे नाटकों को नाव्य शास्त्रीय सिद्धान्तों के भनुकूछ श्राकार-प्रकार अवश्य दिया गया, मान्य नियमों से सी अलडुकृत किया गया है फिर भी जैसा चाहिए वह नाटकीय रूप इनमें तिखर नहीं सका है । ्रमुर्त भावों के मानवी-करण के प्रयास में उनका मानवरूप इतना अधिक स्फुट नहीं होना चाहिए कि उनका उद्देश्य हो नष्ट हो जाय और न इतना कम विकसित होना चाहिए कि वे जीवनहीन व्यक्तित्व के कारण भ्रपने भावमावरूप में ही बने रह जाँय; किन्तु होता ऐसा है कि या तो उन भावों का




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