उपमिति भव प्रचंच कथा | Upmiti-bhva-prapanch Katha

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Upmiti-bhva-prapanch Katha by देवेन्द्रराज मेहता - Devendra Raj Mehta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्ताव ४५ . माया श्र स्तेय से परिचय & माया ध्रौर स्तेय के परिचय का प्रभाव माया श्रौर स्तेय के परिचय के परिणामस्वरूप मेरे मन मे जो विचार-तरगे उठने लगी उन्हे सक्षेप मे तुम्हे बतलाता हूँ । मैं समभकने लगा कि माया जेसो बहिन- श्र स्तेय जेसे भाई को प्राप्त कर मैं सचमुच कृतकृत्य हुभ्रा हूँ, मेरा जन्म सफल हो गया है । ऐसे भाई-बहिन तो भाग्य से ही प्राप्त होते है। उसके साथ विलास करते हुए मेरी चेतना भ्रमित होने लगी श्रौर मन मे श्रनेक प्रकार के तकं-वितकं के भभमावात उठने लगे । माया के प्रभाव से मैं समग्र विश्व को ठगने की सोचने लगा । विविघ प्रपन्नो से लोगों को शीशी-मे उतारने की कामनाये करने लगा । स्तेय के प्रभाव से मेरे मन मे विचार उठा कि मै दूसरो का सब घन चुरा लू या' उठा लाऊ । भद्दे तभी से मै नि.शक होकर लोगो के साथ ठगी करने के. श्र लोगो का घन-हरण कर लेने के काम मे व्यस्त हो गया । मेरे मित्रो और रिश्तेदारों ने भी मुक्त पहचान लिया श्र मेरे ऐसे कुत्सित कार्यों को देखकर वे मुझे तृण के समान तुच्छ समभक्नने लगे । [५९-६४] विमल के साथ मेत्री मर _.... इघर वर्घमान नगर के महाराजा घवल की पटरानी कमलसुन्दरी के साथ मेरी माता कनकसुन्दरी का सम्बन्ध प्रिय सहेली (बहिन) जैसा था श्रौर उन दोनों मे श्रापस मे घनिष्ठ स्नेह था । दोनो माताश्रो के सम्बन्ध के क़ारण पटरानी के पुत्र कपटरहित, स्वच्छ हृदय, वात्सल्यप्रिय विमल के साथ मेरा भी मैत्री-भाव स्थापित हो गया । अर्थात्‌ हम एक दूसरे के इष्ट मित्र बन गये । विमलकुमार_सरवेदा दूसरों - का उपकार करने मे तत्पर रहता था । उसका मन स्नेह से ओतप्रोत था भर वह एक महात्मा जैसा दिखाई देता'था । किसी भी प्रकार के मनमुटाव या दावपेच- रहित वह मेरे साथ प्रमुदित होकर प्रेम से रहता था । जबकि विमल मुक्त पर एक- निष्ठ सच्चा स्नेह रखता था, तब माया के प्रताप से मेरा हृदय कुटिलता का घर बन गया था, इसी कारण मैं अपने मन मे उसके प्रति दुर्भाव रखता था । मै उसके प्रति स्नेह मे सच्चा नहीं था श्रौर विमल जैसे पवित्र महात्मा के प्रति भी मन मे मलिनता रखता था । श्रर्धात्‌ विमलकुमार सच्चा शुद्ध सात्विक प्रेम रखता था श्रौर मै उसके प्रति कपट-मैत्री रखता था । ऐसी विचित्र परिस्थिति मे भी शुद्ध प्रेम और कपट-मैत्री के बीच भूलते हुए, हम दोनो ने . श्रनेक प्रकार की क्रीडा करते हुए, झानन्द करते हुए श्रौर सुखोपभोग करते हुए शभ्रनेक दिन बिताये । [६५-६६] महात्मा विमल ने कुमारावस्था मे ही एक श्रेष्ठ उपाध्याय के पास जाकर उनसे सब प्रकार की कलाओओ का श्रभ्यास कर लिया । क्रमश वह युवतियों के नेत्र को श्रानन्दित करने वाले कामदेव के मन्दिर के समान और लावण्य* समुद्र की श्राघारशिला सद्श तरुणावस्था को प्राप्त हुआ । [७०-७१] का . पृष्ठ ४७३




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