श्रीमद् भगवद्गीता : उपासनाख्ये द्वितीयषट्के [अध्याय ११] | Shrimad Bhagvad Geeta : Upasanakhye Dwitiyashatke [Adhyaya 11]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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. शीब् ह मे हे भौमडगवदीता' २४१६ फिर हे भगवनू ! तुमने जो सुक्ते अध्यात्म, अधियूत और अधियज्ञका उपदेश किया ( देखो भ्० ८ ) तथा देवयान और पितुयान इत्यादि सार्गाका उपदेश किया (देखो अ० ८ श्लो० २४ से ३६ तक ) श्र हे सगवन्‌ ! जो तुमने मु रुझतम राजविद्याका उपदेश किया ( देखो ० £ 9) फिर हैं भगवनू | मेरे इस प्रश्नपर, कि “ वकतु- सहस्पशेपेण दिव्या झात्मविश्वुतय:” तुम अपनी विभूतियोंको मुझे पुरयुरूपसे कहे तिसके उत्तरमें तुमने “ भ्रहसात्मा युडाकेश ”' ““ विपश्याइसिदे छुत्स्नस ” ( अ० १० श्लो० २० से ४२ तक ) दृ्यादि वचनॉंतक अपनी दिव्य विसृतियोंका उपदेश किया । 'ब भजन कहता है, कि [ सादात्स्यमपि चाव्ययस् 1 तुमने अपने अव्यय माहात्म्यको 'र्थात भ्रक्तय महा ऐश्वय्योका बणेन किया है सो मेन विस्तारपूवक श्रवण किया । शंका-- सगवानूने तो अपने सुखारविन्दसे कहा है, कि हे घ्जुन ! मैंने धपने महान ऐश्वय्योंको तुकसे अत्यन्त संक्षिप्तकरके कहा हैं क्योंकि भगवानू अ० १० के झन्तमें थर्जनसे कहचुके * एवं तृदेशत: प्रोक्त: ” ( ० १० श्लो० ४० ) 'र्थात्‌ मैंने ्रपनी विभूतियोंके विस्तारके केरण संक्तेपकरके तुझसे कहा और इस शलोकर्मे 'जुन कहता है, कि “श्रुतो विरतरशो सया” मैंने विस्तारपूव क सुना। तोकहनेवाला कहता है, कि मेंने संक्ोपसे कहा ओर सुनने वाला कहता है, कि मैंने विस्तारसें सुना ये दोनों बातें परस्पर टकराती हैं घर इनसे गीताशारमें अन्योन्य विरोधका दोष लगता है ऐसा क्यों !




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