संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास | sanskrat vyakaran sastra ka itihas

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sanskrat vyakaran sastra ka itihas  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छोमू 1 पहला अध्याय संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और हास समस्त प्राचीन भारतीय वैदिक ऋषि-मुनि तथा झाचाय इस विषय में सहमत हैं कि बेद पौरुषेय तथा नित्य हैं, परम क़ृपाल भगवान प्रति कल्प के छारम्भ में ऋषियों को वेद का ज्ञान देता है और उसी वैदिक ज्ञान से लोक का समस्त व्यवहार प्रचलित होता है । भारतीय इतिहास के अद्धितीय ज्ञाता परम त्रह्मिप्ठ कृष्ण द्रंपायन व्यास ने लिखा है-- अनादिनिधना नित्या वायुत्सष्टा स्वयस्भुवा । आदौं वेद्मयी दिव्या यतः सर्वाः प्रचुत्तयः ॥' पाश्चात्य तथा तद्नुगामी कतिपय एतदेशीय विद्वान्‌ इस भारतीय एऐंतिट्ा- सिद्ध सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते । उनका मत है-- मनुष्य प्रारम्भ में साधारण पु के समान था । दाने: दाने: उसके ज्ञान का विकास हुआ, शौर सदखों वर्षों के पश्चात्‌ बह इस समुन्नत अवस्था तक पहुंचा । विकास- वाद का यह मन्तव्य स्वेथा कल्पना की भित्ति पर खड़ा है । नेक परी- क्षणों से सिद्ध हो चुका है कि मनुष्य के स्वाभाविक ज्ञान में नैमित्तिक ज्ञान के सहयोग के विना कोई उन्नति नहीं होती । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण संसार की अचनति को प्राप्त वे जड्नली जातियां हैं जिनका बाद समुन्नत जातियों से देर से संसग नहीं हुआ । बे ाज भी ठीक वैसा ही पशु जीवन बिता २ट्टी हैं सा सैकड़ों वषे पूबे था । बहु-बिध पर्रीक्षणों से विकासवाद का मन्तन्य ब छाप्रामाणिक सिद्ध हो चुका है । अनेक पाश्चात्य विद्वान्‌ भी शने:. दाने १. महाभारत शान्तिषव २३१ । ५६ ॥ राय श्री अतापचन्द्र द्वारा कलकत्ता से मजञाशित, शकाब्द १८११ । यह शोक वेदान्तयूत्र शाइरभाष्य १३1२८ में उद्धृत है ।




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