जैन दर्शन | Jain Darshan

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Jain Darshan by न्यायविजय जी - Nyayvijay Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्दे न रखकर अत्तीत की ओर दृष्टि रखेगा वद अन्ततः नियतिवादी ही हो जायगा । ' जैसा करेंगे वैसा पाएँगे ”-यह हमें हमारे भावी मार्ग का निर्देश करता है कि जैसा हम बनना चर्हेगे वैसा बन सकेंगे । रावण बनना चाहें तो रावण भी बन सकते हैं और राम बनना चाहें तो राम भी वन सकते हैं । इसमें आशा का तंतु ओतप्रोत है और इसीलिये यह सुभग है। इसके विपरीत नियतिवाद में अतीत की ओर ही स्वेदा दृष्टि रदती है । पहले से जो नियत है वद्द इस समय हो रहा है और आगे सी होता जायगा । इसमें मानव-प्रयत्न के लिये अवकाझ नहीं । हमारे आधुनिक कमंवाद का रुख़ भी सामान्यत! कुछ ऐसा ही है। जो रास्ता ते किया है उसी की ओर मुंह करके वह पीछे की ओर ओागे बढ़ना चाहता है। पीछे कया है इसका उसे भान नहीं । वह तो समझता है कि जैसा किया वेसा पाया और सागे भी पाते रहेंगे ! मारे नसीब में जो बदा होगा उठे कौन रोक सकता है £ होनी अनहोनी नहीं हो सकती ' किन्तु हमें यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि ऐसा भाग्यदाद कर्मवाद नहीं है । वद्द तो इससे कोसों दूर है । एक में आशा है, दूसरे में चिराणा घुली है; एक में प्रगति की ओर अगुठ्ि- निर्देश है, दूसरे में आंघे मुंदद पीठेहट है ! सामान्य जेन-जन का तवज्ञान इस तरह कमेवाद की उल्टी समझ मैं परिसमाप्त हो जाता है । न उसे जैनदशनसम्मत तसवों के नाम तकं आते हैं और न तो आगम व तत्त्वज्ञान के




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