वैदिक प्राण विद्या | Vaidik Pran Vidhya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ं 1 हे हि, तप” 2५ मर पा सवंरध्षक प्राण । १३ इस शरीरके दो प्रेममय कार्य हैं । प्राणतते शक्तिका संत्रधन ता हैं और अपानसे विषको दूर करके स्वास्थ्यका संरक्षण होता प्राणके अंदर एक प्रकारका “ भेषजे '” अधांत्‌ ओषध है को दर करनेकी शक्तिका नाम ( दाष-घ ) औओष-घ अथवा घन हाता हू । रारारक सब दृ।षष दर करना आर वहा शारारम अं : ' आरोग्यकी स्थापना करना, यह पवित्र काये करना प्राणकाही धरम है हैं । प्राणका दसरा नाम “ रूद्र ” हैं ओर रुद्र शब्दका अथ वेद्य भी होता हैं । इसका वणन “ रुद्रदबताका पांरंचय '' और ' ऋग्वेदम रुद्रदेबता ” इन दो पुस्तकाम विस्तारते किया है । पाठक वहां ही इस विषयको देखें । इस प्राणमें औषध हैं, यह वेद्का कथन हैं । इसपर अवदय विश्वाप्त रखना चाहिए, क्यों कि यह विश्वास अवास्तविक नहीं है, अपनी निन शक्तिपर विश्वास रखनेके समानही यह वास्तविक विश्वास है । मानस चिकित्साका यह मूल है, पाठक इस चृष्टिसे इस मंत्रका विचार करें । अपनी प्राणशक्तिस अपनीही चिकित्सा की जा सकती हे । में अपनी प्राणशक्तिसे अपने रोगेंका निवारण अवइय करूंगा, यह भाव यहां घारण करनेसे बडा लाभ होता है । (७) स्वरक्षक प्राण ॥ प्राण। प्रजा अनुवस्ते पिता पुत्रमिव प्रियमू ॥। प्राणो ह सर्वस्येश्वरो यच्च प्राणिति यच्च न ॥ १० ॥ ८ जिस प्रकार प्रिय पुत्रके साथ पिता. रहता है, उस प्रकार सब प्रजाओके साथ प्राण रहता है । जो प्राणघारण करते हैं और




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