ज्ञानामृत कलश | Gyanamrit Kalash

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Gyanamirit Kalash Ac 5659 by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(मालिनी) नहों मद परभाव-त्याग रुष्टात दृष्टि अति वेग से न वृत्ति, जबलों उदय हो । तबलों कट प्रकाशी, ये स्वानुभ्रूति स्वयं, हो सभी अन्य भावों से, बिल्कुल पृथक ही ॥ २९ ॥। (स्नामता) सरवाँग,. चिद्रस परिपूर्ण मैं, चिन्मात्र, एक स्व को स्वाद स्वय । किवचित्‌ भी, मोह मेरा नही नहीं, चिदुघन, मैं तो शुद्ध तेज पुज॥ ३० ॥ (मालिनी) सकल अन्य भावों से, यो करके विवेक, यह उपयोग स्वयम्‌, एक आत्मा को धार । प्रगटित परमाथें,. दशन, ज्ञान-वृत्ति, परिणति से रमता, आत्म उद्यान मे ही ॥ ३१ ॥ (वसततिलका) भगवान ज्ञान सिन्धु, सर्दा ग उछला, विश्वम पट हटा, जडमूल से ये । अत्यन्त मग्न हो जग, सब एक साथ, त्रिलोक व्यापक ज्ञान के शात रस में ॥ ३२ ॥




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