अनेकांत १८ | Anekant 18

लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
318
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शावकप्रश त का रचयिता कौन ? श््झे
विहार करके परिणाम विशेष के भाश्रय से जब पूर्वोक्त
कर्मस्थिति में से उसी जन्म में भथवा श्रनेक जन्मों में भी
भी संख्यात सागरोपम मात्र स्थिति श्रौर भी क्षीण
हो जाती है । तब जीव सवंविरतिरूप यति धमं को--
क्षमा -मार्दवादिरूप दस प्रकार के धर्म को--प्राप्त करत!
है । इस प्रसंग में जो वहाँ दो गाथाएँ (८०-८१) उद्घृत
की गई हैं वे श्रावक प्रज्ञप्ति में २१६०-४१ गाथा संख्या
में उपलब्ध होती हैं ।
अब यहाँ विद्वेष ध्यान देने योग्य यह है कि प्रकृत
श्राचक प्रज्ञप्ति में जिस त्रम से श्रौर जिस रूप से श्र।वक
धर्म की विस्तार से प्ररूपणा की गई है ठीक उसी क्रम से
झौर उसी रूप में उसका विवेचन समराइच्चकहा में गुण-
सेन राजा के उस प्रदन के उत्तर में श्राचायं विजयसन के
श्रीमुख से सक्षप में कराया गया है । समराइच्चकहा का
प्रमुख विपय न होने से वहाँ जो उस श्रावक धम॑ की
सक्षेप में प्ररूपणा की गई वह प्रसंगोचित होने से सतथा
योग्य है । फिर भी वहाँ जिस पद्धति से उसकी प्ररूपणा
की गई है वह श्रावक प्रज्ञप्ति की विपय वेचन पद्धति से
स्वेथा समान है--दोनों मे कुछ भी भेद नहीं पाया
जाता है । इस समानता को स्पष्ट करने के लिए. यहाँ
कुछ उदाहरण दिये जाने हैं--
१. श्रावक प्रज्ञप्ति की गाथा ६ “पंचेव श्रणुव्वयाई'
दि में जिस प्रकार श्रावक धर्म को पाँच ग्रणब्रत. सीन
युणब्रत ग्रौर चार शिक्षात्रतो के भेद से बारह प्रकार कञ
निर्िष्ड किया गया है उसी प्रकार समराइच्चकहा मे भी
उसे बारह प्रकार का इस प्रक।र से निर्दिप्ट किया गया
है१ --
तत्थ गिहिधम्मों दुवालसविहों ! त जहा पंच झणव्व-
याइं तिण्गि गुणव्वयाद चत्तारि सिक्खावयाइ ति । दि
२. श्रागे श्रावक प्रज्ञप्ति की गाथा ७ में श्रावक धर्म
की मूल वस्तु सम्यक्त्व को बतल!या है । यथा--
१. हम समराइच्चकहा का छात्रोपयोगी जो प्रथम दो
भवात्मक सस्करण प्राप्त हुआ है उसमे पु० ४डे-डर्ड
मे उस श्रावक धर्म की प्ररूपणा पाई जाती है पुस्तक
के प्रारम्भ के कुछ पृष्ठो के फट जाने से उसके प्रकाशन
स्थान भ्रादि का परिज्ञान नही हो सका ।
एयस्स सुलवत्यू सम्मत्तं त॑ च गंरिभियम्मि ।
खयउवसमाइ तिविहं सुहायपरिणामरूवं तु ॥
समराइच्चकहा में भी ठीक उसी प्रकार से 'एयस्स
पुर दुविटस्स वि धम्मस्स मूलवत्थु सम्मत्त' इस वाक्य के
द्वारा उम सम्यक्तव को श्रावक धर्म की सूल वस्तु निर्दिष्ट
किया गया है ।
३. जीव ध्रौर कमें का श्रनादि सम्बन्ध होने पर
घंकि कर्म के क्षयोपशमादि स्वरूप उस सम्यक््तव की
संगति त्रनती है, श्रतणएव जिस प्रकार श्रावक प्रज्ञप्ति में
२३ (८ से ३०) गाथाम्रों के द्वारा उन ज्ञानावरणादि
कर्मों की प्ररूपणा की गई है उपी प्रकार समराइच्चकहा
में भी श्रागे संक्षेप में उन कर्मों की प्ररूपणा की गई है ।
यधा--
ज॑ जीव-कम्मजोए जुज्जदद एवं भ्रप्मों तयं पुव्वं ।
वोच्छं तथ्नों कमेण॑ पच्छा तिविहें पि सम्मत्त ॥
वेयणियस्स य बारस णामग्गोयाण श्रट्ट उ मुहुत्तं ।
सेसाण जहन्नठिई.. भिन्नमुहुतं विशिद्विट्रा ॥
श्रा० प्र०्गाथा ८ व ३० ।॥
त॑ पुणो श्रणाइकम्मसंताणवेढियर्स जंतुणों दुत्लह्
हवच ति । त च कम्म प्रट्हा । त॑ जहा--णाणावर णिज्जें
दरिसिणावरणिजज हि ारारर । सेस।ण॑ भिण्णामुदहुत्तं
ति । (समराहच्चकहा )
४ शआ्रागे श्रावकप्र्प्ति में २ गाथामो के ह्वारा
चण-घोलन के निमित्त से उस उत्कृप्ट कमंस्थिति के
किसी प्रकार से क्षीण होने पर झ्रभिन्न पूर्व ग्रन्थ के होन
का निर्देश किया गया है । यथा--
एवं ठियस्स जया घसणघोलणणिमित्तप्नषो कहूवि ।
खबिया. कोडाकोडी सब्वा. इक्क.. पमुत्तूणं ॥३ है
तीइ वि य थोवमित्ते खविए इत्थतरम्मि जीवस्स ।
हवइ हु श्रभिन्नपुव्वो गंठी एवं जिणा विति ॥ देर
ठीक इसी प्रकार से समराइच्चकहा में भी प्रकृत
प्ररूुपणा इस प्रकार की गई हाथ
एवं ठियस्स य इमस्स कम्मस्स श्रहपवत्त करणेण जया
घंसतधोलणाएं कहवि एग सागरोवम कॉडाकोडि मोत्तूण
संसाधों खवियाशों हुवति तीसे वियण थावमित्ते खबिए
तया. घगराय-दोसपरिणाम' ' ** ***१*१११कम्मगठि
हृवइ । (स० कदा)
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