सितार में प्रयुक्त होने वाली रचनाओं गतों क विश्लेषणात्मक अध्ययन | Sitar Men Prayukt Hone Wali Rachanaon Gato Ka Vishleshanatmak Adhyayan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
36 MB
कुल पष्ठ :
284
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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सामगान का आरम्भ “३3%” के उच्चारण से होता था। सामगान में उच्चारण पर बहुत बल दिया जाता था।
इस गान में एक प्रधान गायक होता था जिसे “उद्गाता” कहते थे। उद्गाता की सहायता के लिए कुछ और गायक
होते थे जिन्हें “प्रस्तोता” “प्रतिहर्ता” या-“उपगाता” कहते थे।' साम गान करने वाले ऋत्विक सामग या “छान्दोग्य””
के नाम से भी जाने जाते थे। साम गान के “संगति वाद्य” के रूप में वीणा प्रमुख वाद्य था।*
साम गान में मन्त्र अक्षरों के ऊपर संकेत देकर उच्चारण की गति अथवा लय का निर्देश किया जाता था।*
वैदिक वाड. मय में ताल वाद्यों का विशद वर्णन मिलता है परन्तु ताल वर्णन नहीं है, मात्रा गिनती करने
वाले “गणक”” नामक कलाकार का नाम मिलता है। “स्वर शुद्धि” साम गान का मूल आधार था। सामवेद में गान
के लिए उदात्त अनुदात्त तथा स्वारित इन तीन स्वरों का वर्णन किया गया है।* इस वेद का गान एक युग में तीन ही
स्वरों में होता था फिर चार स्वरों में होता था। साम गान में साधारणतया तीन, चार और पांच स्वरों का व्यवहार होता
था। छः और सात स्वरों के व्यवहार का भी वर्णन प्राप्त है।* यह बात स्वामी प्रज्ञानन्द के बंगला श्न्थ “भारतीय :
संगीतेर इतिहास” से सिद्ध की गई है कि “ऐसा प्रतीत होता है कि सामगान के प्रणताओं ने कई नये स्वरों का परीक्षण
किया और कुछ ऐसे स्वरों की खोज की जो संवाद की दृष्टि से आधार स्वर के साथ मेल खाते थे। सम्भवतः जब
स्वारित भाव का प्रादुर्भाव हुआ तब उसकी. सहायता से नये स्वरों के साथ सम्बन्ध स्थापित होना सम्भव हो सका।”
सामवेद में स्वरों की वृद्धि क्रम से हुई है, पहले तीन स्वर फिर चतुर्थ फिर कुष्ट, मन्द और अतिस्वार का
समावेश हुआ। इन स्वरों के नाम इस प्रकार प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, मन्द, कुछ, अतिस्वार थे।”
सामवेद में जिस क्रम में स्वरों का प्रयोग होता था उस दृष्टि से यह नाम सर्वथा उपयुक्त थे। इस प्रकार क्रमिक
विकास स्वरूप सामगान में सप्तस्वरों के प्रयोग का ईसा से 2500 वर्ष पूर्व से 1400 वर्ष पूर्व तक का काल माना
जा सकता है। इस तथ्य की पुष्टि के लिए “ब्राह्मण अन्थ” यथेष्ट प्रमाण है।
सामवेद में प्रधान स्वर को “प्रकृति स्वर” तथा सहयोगी स्वरों को “विकृत स्वर” कहते थे। स्वरों के विराम
हेतु दण्ड चिन्ह का प्रयोग होता था। दो दण्डों के बीच के स्वरों को “पर्व” कहते थे कई पर्वों से मिल कर गीत बनता
था।* इस वेद में संहिता के प्रमुख भाष्यकार सायणाचार्य, भरत स्वामी, महास्वामी तथा नारायण पुत्र माधव माने जाते
हैं।?
सारांश :- सामवेद संगीतमय है। भारतीय संगीत के इतिहास में संगीत के महत्व पर प्रकाश डालने वाला
सामवेद प्रथम ग्रन्थ है। सामगान की प्रथा ऋग्वेद काल में भी थी परन्तु स्वरों की क्रमबद्ध वृद्धि, मात्रा गिनने वाले
1- भारतीय नाट्य शाख्र तथा हिन्दी नाट्य विधान - पृष्ठ - 238
2- वैदिक परम्परा में साम गान “अनुवाद” - मदन लाल व्यास - पृष्ठ - 77
3- छायानट - जनवरी - मार्च - 1982
4- भारत की सांस्कृतिक परम्परा - पृष्ठ - 13
5- वेदवाणी (पत्रिका) 1983 मार्च - वेद में संगीत - मदन लाल व्यास
6- भारतीय संगीतेर इतिहास (बंगला) - स्वामी प्रज्ञानन्द - पृष्ठ - 19
7- छायानट - जनवरी - मार्च - 1982
8- छायानट - जनवरी - मार्च - 1982
9- भारत की सांस्कृतिक परम्परा - पृष्ठ - 13
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