प्रवचनसार प्रवचन भाग - 7 | Pravachansar Pravachan Bhag - 7
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
186
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गाधी ४५ ] ः [७
यढ़ना है । उपाधिका कहीं वित्कुल भी श्रंभाव हो सकता हैं, क्यींकि वहू उपाधि
ही तो है। उपाधिका पूर्ण श्रभाव होनेपर ज्ञान परिपूर्ण विकसित हो जाता
स्वनावकी विलक्षणा महिंमा--गीवके स्वभावकों तो देखो कि इसका ज्ञान
से दषते रहनेका स्वभाव है. और इसी कारण इस जीवका नोम घह्म हूं बोंकि
घृद्ुति इति प्रहा ध्र्थाद् जो. भपने गुणसे पूर्ण बढ़ सकता हैं उसे अहम '
फहते हैं। इसका गुण है चैतन्य । स्वभाव जँसे पलंग दुसियोंमें स्प्रिंग होते हैं +
उनके उठा रहनेका स्वभाष हैं । कोई यजनदार पुरुष बैठ जाय तो दवता है
थै उसके मिभित्त से । उसे जरा ही मौका मिला तो वह उठनेकों ही तैयार है। कोई
न रहे तो एकदम पूर्ण उठ जाता है। उसका उठनेका स्वभाव हैं, बढ़तेका स्वभाव
हैं । जीवके भी ऐसी विलक्षण शान थक्ति हैं कि उसके विस्तारका ही स्वमाव हैं । तो
चिस्तारका जिसमें स्वभाव हैं ऐसे श्ञानशक्तिका हेतु चतन्य प्राण हैं । येह जीव
निरचय से परिपूर्ण हैं । थे निव्चय प्राण जीवके निकाल हैं । ः
सत् श्रनादि ध्नम्त--जो सत् हूँ वह कभी नहीं था वीचमें होगया ऐसा कभी
नहीं होता । भ्रगर सत् नहीं था भर चीचमें होगया तो केसे होगया ? उसका उपादान
कया ? जो कुछ भी होता हैं उपादान तो होता हीहैना?तो जीव नया श्रौर होगया
तो जवका उपादान बया हैं ? जो भी उपादान मानों वह है झौर पहिले से था जो
सन् है वह पहिले से है धौर भ्रनन्तकाल तक रहेगा । यह मैं सतु हूँ । हैं ना?
लि हैं होने में संदेह नदों हैं । भ्रस्तित्वमें तो सन्देह नद्दीं है । खूब हैं । हां यह बात श्रोर
है कि चाहे भ्रनेक माया, मिध्या, निदान, एल्योंसि भरी हुई भ्रनुभूति होती रहें
अथवा थुद्ध ज्ञावतत्मकी खबर कर सकने वाली झ्नूभूति होती रहे । तो जब हम हैं
तोजोंभी चस्तु होती है स्वमात्र माय होती है, स्वभावसे प्रथकू नह्दीं है; सो
स्वभावसूप यह श्रात्मतत््व, चेतन्यरवसावात्मक यह मैं श्रात्मा स्वेदा हूँ ।
निज चैतन्य स्वसावशुन्य लौकिक सश भैमव मूंग सरीविका--ऐसी भकालिक
निज चंतन्य स्वरूपयी जब उत्सुकता नहीं रहती , जिशासा नहीं रहती तो समभको -«
ध्नन्ते संकट इस जीवपर श्राजाते हैं । संकटोंसे हर होनेका उपाय एक ही
हैं। झनादि भ्नन्त श्रहेदुक स्वभावमय श्रारमतरंवका भवलम्बन लेनेसे सब संकट.
नप्ट होते हैं । सब संकटोंके विनासका एक मात्र उपाय है। बड़ोंका वड़प्पन इसी में
है । लौकिक बंभव धढ़ालें , इससे बड़प्पन नहीं है लौकिक बैभवसे कोई यश महीं ।
यदाके मायने बया कि संसारमें भटकने वाले इन प्राणियोंने कुछ ब चनोंसे कुछ बोलीसे
फुछ ढंग से, जिसको यह श्रपने श्रनुकुल॒ समभता; यह जिसको सुनकर झ्पने मनमें
राजी.होता उसी के माने यश है । हम ही सरीखे शर हमसे भी गये बीते कुछ जीवों के
कुछ जचन सुननेको मिल. गये इसी के माने यधकी कल्पना हूँ .। सो . उन जीवों. .
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