श्री पट्टावली परागसंग्रह | Shri Pattavali Paragsangrah
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
576
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भ्रथम-परिच्छेद ] [ ७
हो जाता है, इसलिए प्रस्तुत कर्पस्यविरावली की परम्परा लिखने के पहले
हम जेनकालगणया पर चार दाव्द लिस देवा उचित समभते है ।
जैन कालगणना पद्धति दो परम्पराश्रो पर चलती है । एक तो युग-
प्रवानों के युगप्रधानत्व पर्याय काल के धाधार पर श्रीर दूसरी राजाश्री के
राजत्वकाल वी कडियो के ध्राघार पर । निर्वाण के बाद की दो मुल पर-
म्पराम्रो में जो अनुयोगधघरों की परम्परा चली है उसके वर्षों की गणना कर
जिननिर्वाण का समय निदिचित किया जाता था । परन्तु जैन श्रमण स्थायी
एक स्यान पर तो रहने नहीं थे, पुव, उत्तर, दक्षिण श्रौर पश्चिम भारत के
सभी प्रदेश उनके विहासक्षेत्र थे । कई वार श्रनेक वारणो से श्रमणगण
एक दूसरे से बहुत दूर चले जाते थे श्रौर वर्षों तक उनवा मिलता अझसभव
घन जाता था, ऐसी परिस्थितियों मे जुदे पड़े हुए श्रमणगण श्रपने श्रनुपोग
घर युगप्रधानो का मय याद रखने में श्रसमय हो जाते थे, इसलिए युग-
प्रधानत्वकाल स्थू खला के साथ भित मित्र स्थानों के प्रसिद्ध राजाय़ो के
राजत्वकाल की स्छ् खला भी श्रपन स्मरण में रखते थे । इतनी सतकता
रखते हुए भी कभी कभी सुदूरवर्ती दो श्रमणत्घो के बीच कालगणया-
सम्ब घी कुछ गडबडी हो ही जाती थी । भगवान महावीर के समय मे
उनका श्रमण सघ भारत के उत्तर तथा पूव के प्रदेशो मे श्रधिकतया विघ-
रता था । श्राय भद्रवाहु स्वामी के समय तक जन श्रमणों का. विहारक्षेत्र
यही था, परतु मौयकालीन भयकर दुष्कालो के कारण श्रमण-सघ पु से
परिचम की तरफ मुडा श्रीर मध्य भारत के प्रदेशो तक फल गया, इसी
प्रकार संकड़ो वर्पों के वाद भारत के उत्तर पदिचमीय भागों में दुष्काल
ने दीघकाल तक अपना श्रट्टा जमाए रक््खा । परिणाम स्परूप जेन श्रमण-
सभ की दो टुकछिया बन गई । एक टुक्डो सुदूर दक्षिण की तरफ पहुँची
श्रौर वह्दी विचरने लगी, तत्र दूसरी टुकडी जो झ्रघिक बुद्ध श्रुतघरों की बनी
हुई थी, भारत के मध्य प्रदेश मे रहकर विपम समय व्यत्तीत करता रही !
विषम समय व्यतीत्त होने के बाद मध्यभारत तथा उत्तर भारत के भागों में
विचरते हुए श्रमण॒ “मथुरा' मे सम्मिलित हुए । थोडे वर्षों के घाद दाक्षि
णात्य प्रदेश मे घूमने वाले श्रमण भी पश्चिम भारत की तरफ मुडे घर
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