योगवाशिष्ठ | Yogvashishtha
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
64 MB
कुल पष्ठ :
684
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पछ्ठ निवांए प्र० । ध्२४
को प्राप्तहुये हैं । जो कुड तुमको दृडयभासताहे वह अविद्याके नवगणोंमें हे । ऋषी-
इवर, म॒नीइवर, सिद्ध, नाग, विद्याधर आर देवता अविद्याके सात्विक भाग हैं ओर
उस साच्विक के विभाग में नाग सात्विक-तामस हूं, विद्याधर, सिदद, देवता ओर
मुनीडवर, अविद्य! के सास्विकभाग में सात्विक-राजस हैं ओर हरिहरादिक केवल
साच्विकहें । हे रामजी ! साच्विक जो प्रकृत भागहें उसमें जो तच्वज्ञ हुये हैं वे मोहको
नहीं प्राप्तहोते क्योंकि, वे मुक्तिरूप होतेहैं। हरिहरादिक शुद्ध साच्चिक हैं ओर सदा
मुक्तिरूप होकर जगतमें स्थित हैं । वे जबतक जगतमें हें तवतक जीवन्मक्त हैं ओर
जब विदेह मुक्त हुये तत्र परमेइवर को भाप्त होतेहें । है रामजी ! एक विद्या के दो
रूप हैं। एक अविद्या विद्यारूप होती है-जैसे बीजफलको प्राप्त होता है ओर फल
वीजभाव को प्राप्तहोता है जैसे जलसे बुदवुदा उठता है तैसेही अविद्यासे विद्या उप-
जती है और विद्यासे अधिद्या लीन होती हैं । जैसे कापसे अग्नि उपजकर काछको
दग्घकरती है तेसेही विद्या अविद्यासे उपजकर अविद्या को नाश करती है । वास्तव
में सब चिदाकाश है जैसे जलमें तरड्टड कलनामात्रेहे तैसेही विदा अविद्या भावना
मात्र है । इसको त्याराकर शेप्ात्मसत्ताही रहती है । अविद्या ओर विद्या आपस
में प्रतियोगी हैं-जेसे तम और प्रकाश इससे इन दोनों को त्यागकर आत्म
'सनत्तामें स्थित हो । विद्या और अविद्या कल्पनामात्र है । विद्या के अभाव का नाम
अविया है और अविद्या के अभाव का नाम विद्या है । यह प्रतियोगी कल्पना
मिथ्या उठीहै । जब विद्या उपजतीहे तब अधिद्याको नर करतीहै और फिर आपभी
लीन होजाती है-जेसे काप्ठसे उपजी अग्नि कापुको जलाकर आपभी शान्त होजाती
है-उससे जो शेष रहता है वह अशब्द पद सर्वव्यापी है। जैसे वट वीज में पत्र
टास, फूल, फल अर पत्ते होते हैं तैसेहदी सबमें एक अनुस्यूतसत्ता व्यापी है सोही
त्रह्मतत्व सर्व शक्ति है, उसीसे सर्व शक्ति का स्पन््दु है च्औौर ाकाशसे भी शून्य है।
जैसे सूर्यकांत में अग्निहोती है और दूधमें घृत है तैसेही सब जगतमें ब्रह्म व्यांप
“रहा है । जैसे दधिके मथेविना घत नहीं निकलता सैसेही विचार बिना आत्मा नहीं
भासता और जैसे अग्निसे चिनगारें ओर सूयंसे किरणें निकलती हैं तैसेही यह
जगत आत्मा का किंचन रूप है। जैंसे घटके नाश हुये घटाकाश अविनाशी है तैसेही
जगत् के अभावसे भी त्ात्मा अविनाशी है । हे रामजी ! जेसे चुम्बक पत्थर की
सत्तासे जड़लोह चेछा करता हैं परंतु चम्बक सटा अकत्ताही है तेसेही अ्यात्माकी
सत्ता से जगत् देहाद्िक चेष्टा करते हें ओर चेतन्य होते हैं परन्तु आत्मा सदा
अकत्तो है। इस जगत् का बीज चेतन आत्म सत्ता है और उसमें सम्वित् संवेदन
' श्रादिक शब्दभी कल्पना मात्रहै । जैसे जलको कहिये कि, वहुतसुन्दर आर च श्लहै
कप
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