भारतीय सहकारिता का इतिहास | Bharatiy Sahakarita Ka Itihas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भारत में सहकारिता श्५्‌ नहीं था । परन्तु इनकी आवश्यकता इतनी अधिक थी कि प्रावधान न होने पर भी केंद्रीय सभाएं बन गई और इनकी कम्पनी अधिनियम के अधीन रजिस्ट्री कराई गई । साथ ही यह भी अनुभव किया गया कि कृषि तथा उद्योग-धंधों की उन्नति तथा उनको बिक्री संबंधी सुविधाएं प्राप्त कराने के लिए सहकारिता का प्रयोग हो सकता है । परन्तु सन्‌ १९०४ के अधिन्नियम के अधीन ऋण तथा साख-सभाओं के अतिरिक्त किसी और किस्म की सभाओं की रजिस्ट्री कराने का कोई प्रावधान न था । उपभोक्ता ( (00715पाएए८7 ) क्षेत्र में सहकारिता का प्रवेश रुका रहा । इस काल में रजिस्ट्रारों के कई सम्मेलन हुए । उन्होंने भी इन दोषों को देखकर प्रांतीय सरकारों का ध्यान आकर्षित किया । : फलस्वरूप भारत सरकार ने एक नया अधिनियम बनाने की आवशइ्य- कता अनुभव की । सन्‌ १९१२ का सहकारो-अधिनियम सन्‌ १९१२ में नैया सहकारी कानून बना । यह नया कानून उस समय से लेकर अब तक संशोधित नहीं हुआ । हां, बंबई, मद्रास तथा बंगाल की प्रांतीय सरकारों ने सहकारिता विषय के प्रांतीय सूची में आने पर इसमें कुछ परिवर्तन अवश्य किये; परन्तु बहुत से राज्यों में अभी तक यह एक्ट पुराने रूप में ही चालू है, हालांकि १९४६ की सरय्या-समिति ने इसमें संदोधन की सिफारिदशें की थीं । अतः आवश्यक हैं कि इस अधिनियम के प्रावधानों पर कुछ अधिक व्यौरे से विचार कर लिप्रा जाय । सन्‌ १९१२ के सहकारी-अधिनियम के विशेष परिचायक प्रावधान इस प्रकार हैं:-- १. केवल ऋण तथा साख-संबंधी सहकारी सभाओं के रजिस्ट्री किये जानें के १९०४ के प्रावधान के स्थान पर यह प्रावधान रखा गया कि वह सब सहकारी सभाएं रजिस्ट्री की जा सकेंगी, जिनका उद्देश्य सह- कारिता के सिद्धांतों पर अपनें सदस्यों के आर्थिक हितों का विकास हो




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