जैन- अंगशास्त्र के अनुशार मानव - व्यक्तित्व का विकास | Jain-angashastra Ke Anusar Manav-vyaktitav Ka Vikas

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Jain-angashastra Ke Anusar Manav-vyaktitav Ka Vikas by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम अध्याय अंग शास्त्र का परिचय अंग शास्त्र : ब्राह्मण धर्म में वेद (श्रुति) का तथा वौद्ध धर्म में त्रिपिटक का जैसा महत्त्व है, वैसा ही महत्त्व जैन धर्म में अगणास्त्र का है | समवायाग में अगणास्त्र को “गणिपिटक” कहां गया है। टीकाकार अभयदेव ने 'गणिपिटक' का अर्थ निम्नप्रकार किया है--गणी अर्थात आचार्यों का, पिटक अर्थात्‌ धमंरूप निधि रखने का पात्र ।” गणिपिटक के १२ भेद है*-- १. आयारे (आचाराग) २. सुयगडे (सुनकृताग) ३. ठाणे (स्थानाग) ४. समवाए (समवायाग) ५. विवाहपन्नतति (व्याख्याप्रजप्ति) ६. णायाधम्मकहाओं (ज्ञाताधमंकथा ) ७. उवासगदसाओ (उपासकददाग ) ः ८. अतगडदसाओ (अन्तकदूदनाग ) #. अणुत्तरोववाइयदसाओ (अचुत्तरौपपातिकदनाग ) १०. पण्हावागरणाइ (प्रदनव्याकरणाग ) ११. विवागसुय (विपाकश्चुत ) १२. दिट्ठवाए (हृष्टिवाद) ्‌ आगम मे यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आचाराग आदि अगो की रचना महावीर के अनुयायी गणधरो ने की है ।5 'जिन' १. समवायाग १३६ (अभयदेववृत्ति, पृ० १०० अ) २. नदीसुत्र, ४४ 3. सदीसुन्र दृ्णि, पृ० १११, ला० इन ए० इ०, पु० देर




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