श्री जैन सिद्धांत बोल संघार भाग - ५ (दिवाकर रश्मिया ) | Shri Jain Sidhant Bol Sangrah Part- 5

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Shri Jain Sidhant Bol Sangrah Part- 5 by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भावना | ११ सभाई यह है दि काई पिसी को सुख-दु्प नहीं पहुँचा सबता । मनुष्य का मन ही उसमे हु खो की सप्टि वरता है और यहां उसव सुख वो उत्प्न बर सबता है। ससार चक्र मे अमण वरान थाना मन ही है। ण नदेष हपागी था घेपर धारण बरते से वास सही चलग! और सांग गे भागन मात्र से भी बस नहीं चलेगा परम परत पाप थे लिए हो मेने थो १यागी बनाना हो पड़ेगा । विषयों के स्थाग वे साथ हो साथ विषया थी दासता मा भी द्याग यरता आवध्यषक है। जब बासता ट्रेर हो जाय सभी स्याग थी परिपृणता समझमी चाहिए । बोस मठ परे थे लिए श्वाध्याय ध्यान चितन मनन मी आवश्यवता है ध् पुम दाग, धील तप और भावता लि बे रूप भाई धो वि बरी उगबे पथ थी वादा मत बह । साकार जिया लत है जिया ने पे में विपरीतता और नयूनता आ जाती है और निर्तस शोक दिया पते पर पूण पल पी प्रति ही है । दिस्ली झपने बर्चा बे भी मूह गा पथ इती है भीर चुहे थ1 5 डगी मत दे पकइली है। पर से दलो से पगरस ही भामते! कप नेता भेद ता है । दे भाई | भव लू जिदण्ड बो सारण बेर । भरी पर रह 1 बए पहपु था निर्पर जता बा भार धारण करने फिस्य १ से ही शिहा आए गचा मैं बह जघना उॉचे देन ली चोरी पर निवास बेर 1 कहे (हर पर बालन जमा बर बेर ! भर्ती बेगो है शिदारो «1 रा बरे सैर गैर हृदय यदि अरुद्ध है तो इस बुए की सी हौतान्दालर हे, झगरा बा जस्पाण तो तरी ही रद हू कपरे कूल, हैलीदीग ।




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