मोक्षमार्ग प्रकाशिकी की किरणे भाग - Ii | Mokshamargaprakashak Ki Kirane Volume - Ii

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Mokshamargaprakashak Ki Kirane Volume - Ii by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कं भी सिद्ध स्यः समर के कं श्री मो क्षमाग प्रकोर्शकिम्यः नम थे १३८ अध्याय सातवा जेनसताजुयायी मिथ्याइष्रियों का स्वरूप [ चीर स० २४७६ साघ शुक्ला १०, शनि, र४-१-४३ 3 दिगम्बर सम्प्रदायमें सच्चे देव-गुरु-घाख्रकी मान्यता होने पर भी जीव मिथ्याहष्टि किस प्रकार हैं ? वह कहते हैं । जो वेदान्त, वौद्ध, इवेताम्बर, स्थानकवासी श्रादि हैं वे जन मतका अनुसरण करनेवाले नही हैं,--यह वात तो इस शाख्रके पांचवें अधिकार मे कट्टी जा चुकी है । यहाँ तो यह कहते हैं कि--जो वीतरागकी प्रतिमाकों 'पुजते हैं, २८ सरल गुण घारक नग्न भावलिंगी सुनिको मानते हैं, उनके कहे हुए शास्त्रोका श्रभ्यास करते हैं--ऐसे जेन- सतानुयायी भी किस प्रकार मिथ्याह्टि हैं । “सता स्वरूप” में श्री भागचन्दजी छाजड ने कहा है कि दिगम्बर जैन कहते हैं कि--हम तो सच्चे देवादिको मानते हैं इस- लिये हमारा यृहीत मिथ्यात्व तो छूट ही गया है । तो कहते हैं कि- नही, तुम्हारा गद्दीत मिथ्यात्व नही छूटा है, क्योकि तुम गृहीत मिथ्यात्वको जानते ही नहीं । श्रन्य देवादिको मानना ही ग्रह्ीत मिथ्यात्वका स्वरूप नही है । सच्चे देव-गुरु-लाख्ककी श्रद्धा वाह्यमें




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